उत्तर प्रदेश देश का प्रधानमंत्री देने के मामले में भले ही चौकस रहा हो. देश में अव्वल रहा हो, पर यहां की सरकारों को राज्य के नागरिकों को अग्रिम जमानत का अधिकार देने में चार दशक का वक्त लग गया.जाहिर है कि सूबे के सरकारों ने इस मामले में नागरिकों के अधिकार की अनदेखी करने का ही रुख अपनाया था, यह तो भला हो उन लोगों का जो समय-समय इस मसले को लेकर न्यायालय पहुंचे और वहां से मिले निर्देशों के चलते मुलायम सिंह यादव, मायावती और योगी आदित्यनाथ ने जो प्रयास किये, उसके चलते आखिर उत्तर प्रदेश में भी अग्रिम जमानत पाने का रास्ता खुल गया है.अब सोचने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश में आखिर अग्रिम जमानत पर रोक क्यों लगी? क्या इस राज्य में अग्रिम जमानत का मिसयूज हो रहा था? तो जबाव है कि ऐसा नही था. फिर क्यों यूपी के लोगों को अग्रिम जमानत लेने संबंधी अधिकार का अन्य राज्यों की तरह लाभ लेने से वंचित किया गया.इसकी पड़ताल से पता चला कि इमरजेंसी के दौरान जब देश की जनता के तमाम अधिकार छीने गए थे तब ही वर्ष 1976 में अग्रिम जमानत के व्यवस्था को यूपी में भी खत्म किया गया.संविधान की मूल भावना के विपरीत लिए गए इस फैसले तब विरोध भी हुआ था. जिसकी अनदेखी करते हुए नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में यूपी एक्ट संख्या-16 के रूप में विधानसभा में पास कराकर एक मई 1976 से इसे लागू किया गया था।तब इस एक्ट में इसका औचित्य सिर्फ यह बताया गया कि अग्रिम जमानत के प्रावधान (सेक्शन-438) की वजह से व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो रही थी, इसलिए इसे समाप्त किया जाता है।इमरजेंसी के खत्म होने और केंद्र में जनता पार्टी के सरकार बनने पर देश के अन्य राज्यों में तो अग्रिम जमानत की व्यवस्था बहाल कर दी गई. परन्तु उत्तर प्रदेश में इसे बहाल नहीं किया गया क्योंकि तत्कालीन राज्य सरकारों ने इसके लिए जरूरी पहल ही नहीं की.दुःख की बात तो यह है कि वर्ष 2003 के पहले तक राज्य की सत्ता पर काबिज रही सरकारों ने एक बार भी यह नही सोचा कि इमरजेंसी के दौरान जनता के छीने गये अधिकार को बहाल किये जाने की जरूरत है.इस मामले में वास्तविक पहल वर्ष 2003 में सत्ता में आयी मुलायम सिंह यादव की सरकार में हुई. सपा के नेताओं के अनुसार मुलायम सिंह यादव ने इमरजेंसी के दौरान जेल गये नेताओं से वार्ता कर रहे थे तब ही अग्रिम जमानत पर लगी रोक का मामला चर्चा में आया.