आंचलिक पत्रकारों के बिना आप समाचार पत्र एवं न्यूज़ चैनलों की कल्पना नहीं कर सकते। अखबार एवं चैनल में 70 प्रतिशत आंचलिक पत्रकारों की बदौलत ही सुर्खियां बनती हैं। आंचलिक पत्रकार पत्रकारिता की रीढ़ होते हैं जिसके बिना कोई भी समाचार पत्र एवं न्यूज़ चैनल दो कदम चल नहीं सकता है। आप 12 पेज का अखबार प्रकाशित करें या 24 घंटे का न्यूज चैनल चलाएं, बिना आंचलिक पत्रकारों के आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाचार संकलन से लेकर प्रसार तक में आंचलिक पत्रकारिता की भूमिका (Role of regional Journalism) अहम होती है। वहीं दूसरी तरफ जो कड़वी सच्चाई है उन अखबारों और चैनलों की कमाई का 5 प्रतिशत भी आंचलिक पत्रकारों की झोली में नहीं जाती।
पिछले कुछ वर्षों में समाचार संकलन को लेकर झारखण्ड में आंचलिक पत्रकारों के विरुद्ध लगभग 38 मामले दर्ज हुये और पांच पत्रकारों की हत्याएं हुयी। उन सभी मामलों में उनके प्रबंधन ने उन्हें अपना पत्रकार मानने तक से इंकार कर दिया।
अधिकांश आंचलिक पत्रकार अखबारों एवं चैनलों में निशुल्क सेवा देते हैं। कॉरपोरेट घरानों के कुछ अखबार उन्हें वेतन के नाम पर 100₹ से लेकर 250₹ तक मानदेय देते हैं जो एक दिहाड़ी मजदूर की मजदूरी से भी कम होता है। आंचलिक पत्रकारों में मानदेय पाने वाले भी मात्र 2 से 5 प्रतिशत ही होते हैं।
आंचलिक पत्रकारों के ऊपर संस्थान का दोहरा दबाव रहता है उन्हें अपने संस्थान के लिये वार्षिक 2 से 5 लाख रुपये का विज्ञापन देना अनिवार्य होता है। अगर यह कहा जाये कि समाचार के साथ-साथ आंचलिक पत्रकार अखबार एवं चैनल का 50 प्रतिशत आर्थिक बोझ भी उठाते हैं तो यह कहना गलत नहीं होगा।
आंचलिक पत्रकारों को अपने जीवनयापन के लिये पत्रकारिता के साथ-साथ कोई न कोई कार्य करना ही पड़ता है। उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड एवं बंगाल जैसे राज्यों में बड़ी संख्या में आंचलिक पत्रकार किसान हैं, तो कई निजी बीमा कंपनी के एजेंट के रूप में भी कार्य कर रहे होते हैं। अपनी पत्रकारिता के साथ वे कभी समझौता नहीं करते, समाज और देश के प्रति वे पूरी ईमानदारी से कार्य करते हैं उन सफेदपोश पत्रकारों से कहीं बेहतर जो उन आंचलिक पत्रकारों के कंधे पर सवार होकर लोकसभा एवं राज्यसभा तक पहुंचने का लक्ष्य बनाकर पत्रकारिता को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं।
आंचलिक पत्रकारों के लिये अब पत्रकारिता की साख बचाये रखने का भी दबाव अधिक बढ़ता जा रहा है। अंचल स्तर पर अब पत्रकारों की भीड़ में धंधेबाजों की एंट्री ने उनकी चिंता बढ़ा दी है। अधिवक्ता, सरकारी कर्मचारी एवं सरकारी शिक्षक भी अब पत्रकारिता करने लगे हैं। आंचलिक पत्रकारों के लिये यह सबसे बड़ी चुनौती बनते जारहे हैं और आये दिन इनके क्रियाकलापों के कारण उन्हें शर्मसार होना पड़ता है। अखबार एवं चैनल के प्रबंधन को उस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि वे पत्रकार के रूप में जिसे अपना माइक आईडी और प्रमाण दे रहे हैं उसकी शिक्षा क्या है, वे कहीं किसी अन्य पेशे से तो नहीं जुड़े हैं। मीडिया हाउस का प्रबंधन केवल यह देखता हैं कि उन्हें वार्षिक विज्ञापन के रूप में उन्हें मोटी रक़म कहाँ से मिल पायेगी। एक तरह से उन्हें एक मज़बूत वसूली करने वाला व्यक्ति चाहिये होता है जो दोहन कर उन्हें अधिक से अधिक आर्थिक रूप से वसूली कर पैसे दे सके।
पिछले दिनों झारखण्ड में टेरर फंडिंग, कोयला खनन एवं अवैध खनन करने वालों से वसूली के खाते में पत्रकारों का नाम मिलना यह दर्शाता है कि पत्रकारिता की आड़ में उन धंधेबाजों का उद्देश्य एवं लक्ष्य क्या रहा है।
भारतीय मीडिया का यह सबसे त्रासद समय है | This is the most tragic time of Indian media.
छीजते भरोसे के बीच उम्मीद की लौ फिर भी टिमटिमा रही है, और यह उम्मीद हमें आंचलिक पत्रकारों से ही मिलती है। आज भी झारखण्ड के पिछड़े जिलों में से एक सरायकेला में हमें साइकिल से पत्रकारिता करते पत्रकार मिल जायेंगे, वे आंचलिक पत्रकार एवं पत्रकारिता के लिये उम्मीद की किरण हैं।