भारतीय इतिहास में 1971 एक ऐसे साल के तौर पर दर्ज है, जब मुश्किल यथार्थ के बीच भी भारत ने अपने बारे में अच्छा महसूस किया. यह सिर्फ उम्मीद का साल नहीं था, भारत में छिपे जीत के जज़्बे की आत्मपहचान का वर्ष भी था.
भारतीय इतिहास के कैलेंडर में 1971 के नाम कई बड़ी जीतें दर्ज हुईं- राजनीति हो, चुनाव या फिर युद्ध- और ये सब दूरगामी असर डालने वाले थे. भले ही भारत घरेलू मोर्चे पर कई समस्याओं से जूझ रहा था, लेकिन फिर भी देश एक नई उमंग का अनुभव कर रहा था.
50 सालों के बाद हम मुड़कर उस समय को देख रहे हैं और उस जज्बे को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं. अगले कुछ दिनों में प्रकाशित होने वाले लेखों की श्रृंखला के तहत लेखक निश्चित विषयों को याद करेंगे और उनका विश्लेषण करेंगे और एक युवा, संघर्षरत मगर उम्मीदों से भरे हुए भारत की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करेंगे.
17 दिसंबर 1971 की सुबह एक अखबार में बड़े अक्षरों में छपा शीर्षक था : ‘बांग्लादेश को आजाद कराया गया’ (बांग्लादेश लिबरेटेड) उसी अखबार के पहले पन्ने की अन्य खबरें थीं- ‘45 पैटन नेस्तेनाबूद’, ‘हम लड़ाई जारी रखेंगे: याहया’ और ‘संसद में खुशी की लहर.’
उस समय ये सारी सुर्खियां भारतीयों को तुरंत समझ में आ गईं, पैटन अमेरिकी टैंक का नाम था, जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान ने युद्ध में किया था. उस समय वह भारतीय सेना के पास मौजूद टैंकों की तुलना में श्रेष्ठ माना जाता था.
दो मोर्चों पर भारतीयों की उपलब्धियों की सूचनाएं अखबारों और ऑल इंडिया रेडियो के मार्फत हम तक पहुंचती रहीं.
याहया का मतलब जाहिर तौर पर याहया खान था, जो उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति और आर्मी जनरल थे और जो अमेरिका का हाथ अपनी पीठ पर होने के विश्वास के दम पर भारत के खिलाफ बड़बोली आक्रामकता से भरे हुए थे. युद्ध के अंत में उनके देश के दो टुकड़े होने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
संसद में उठी खुशी की लहर की प्रतिध्वनि भारत की गली-गली में सुनी जा सकती थी क्योंकि देश ने अपनी पश्चिमी सीमा पर परेशानी खड़े करने वाले पड़ोसी को निर्णायक शिकस्त दी थी और पूर्वी सीमा पर एक नया मुल्क तामीर किया था. 14 दिन के युद्ध का अंत पाकिस्तान के विखंडन के तौर पर निकला और भारत इस युद्ध से विजेता होकर निकला.
यह जीतों से भरे एक साल का यादगार समापन था. ये जीतें इसलिए महत्वपूर्ण थीं, क्योंकि उस समय भारत एक लस्त-पस्त अर्थव्यवस्था और आवश्यक पदार्थों की कमियों से जूझ रहा एक मदद का तलबगार गरीब देश था. लेकिन उस साल हर भारतीय के चेहरे पर एक चमक थी- ’इसकी अपनी घरेलू समस्याएं बनी हुई थीं, लेकिन फिर भी काफी कुछ ऐसा था जिसका जश्न मनाया जा सकता था.
आजाद भारत के इतिहास में कई और साल मील के पत्थर के तौर पर दर्ज हैं- 1947, 1952 (जब पहले आम चुनाव कराए गए) 1962 (जब भारत को चीन के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा), 1975 (जब आपातकाल की घोषणा की गई), 1984 (जब इंदिरा गांधी की हत्या की गई) 1991 (जब आर्थिक सुधारों की घोषणा की गई) आदि.
लेकिन जो चीज 1971 को खास बनाती है, वह यह है कि पहली बार ऐसी ‘बड़ी’ घटनाएं घटीं, जिन्होंने आने वाले दशकों की पृष्ठभूमि तैयार करने का काम किया- राजनीतिक, रणनीतिक और खेल के क्षेत्र में, जिसमें भारत अभी तक एक पिछड़ा हुआ देश था.
हॉकी को छोड़ दें, तो भारतीय टीमें संघर्ष का जज्बा या जीत की इच्छाशक्ति दिखा पाने में समर्थ नहीं हुई थीं- 1971 में जब देश अपनी आजादी के 25 सालों से एक साल दूर था, भारत ने विदेशी जमीन पर एक नहीं दो टेस्ट श्रृंखलाओं में जीत दर्ज की और वेस्टइंडीज और इंग्लैंड जैसी दो शक्तिशाली टीमों को धूल चटाकर क्रिकेट के पुराने किले को तोड़ एक नये युग का सूत्रपात किया और क्रिकेट के उच्च वर्गीय दबदबे और इसके अभिजात्य अतीत को झकझोर कर रख दिया.
साल की शुरुआत में जब मार्च में आम चुनाव कराने का ऐलान किया गया, तब लग रहा था कि लड़ाई इंदिरा गांधी बनाम शेष विपक्ष के बीच होगी.
इंदिरा को पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिनगप्पा ने कांग्रेस से निकाल दिया गया था. वे और कामराज, एसके पाटिल, अतुल्य घोष और मोरारजी देसाई जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता न सिर्फ इंदिरा के कामकाज की शैली से बल्कि प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी नीतियों से भी नाराज थे.
इंदिरा गांधी ने निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके आर्थिक और राजनीतिक प्रतिष्ठान को झकझोर दिया था और 1947 में भारतीय संघ में शामिल होने वाले रजवाड़ों को दिए जानेवाले प्रिवीपर्स को समाप्त कर दिया था. उनकी नजर में इंदिरा सबको रौंदने पर आमादा एक वामपंथी थीं और वे इंदिरा को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए प्रतिबद्ध थे.
पुरानी कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी, जिसका धनिकों के प्रति झुकाव कोई छिपी हुई बात नहीं थी, एक साथ आ गए और जैसा कि समाजवादियों की फितरत रही है, वे भी इस गठबंधन में शामिल हो गए.
हिली हुई मगर संकल्प से भरी हुई इंदिरा ने अपना सर्वस्व झोंक दिया- उन्होंने गरीबों के पक्ष में और नीतियों का वादा किया. उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया- और खुद को महागठबंधन से अकेले टकरा रही योद्धा के तौर पर पेश किया.
इस चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने 520 में से 352 सीटों पर जीत दर्ज करते हुए अपने विरोधियों को ध्वस्त कर दिया. वे न सिर्फ कांग्रेस की निर्विवाद नेता के तौर पर, बल्कि राजनीति की धुरी के तौर पर उभरीं.
नेहरू के अवसान के बाद लाल बहादुर शास्त्री की अचानक मृत्यु और कांग्रेस पार्टी के भीतर इंदिरा और उनके विरोधियों के बीच छिड़ी जंग के कारण पनपी अनिश्चितता के साए में कई साल गुजारने के बाद भारत में आखिरकार एक राजनीतिक स्थिरता कायम हुई.
इसी बीच जब यह सब भारत में हो रहा था, वेस्टइंडीज में भारतीय क्रिकेट टीम चमत्कारिक प्रदर्शन कर रही थी. किंग्स्टन जमैका में पहला टेस्ट ड्रॉ कराने के बाद, जिसमें भारत जीत के काफी करीब था, मार्च में भारतीय क्रिकेट टीम ने वेस्टइंडीज की शक्तिशाली टीम को पराजित किया.
दिलीप सरदेसाई ने शानदार प्रदर्शन किया और बॉम्बे के एक नौजवान के बल्ले से इस सीरीज में और आने वाले सालों में निकलने वाले कई शतकों में से पहला शतक लगाया गया.
बाकी के तीनों टेस्ट ड्रॉ रहे और सबको चकित करते हुए पटौदी की जगह कप्तान बनाये गए अजित वाडेकर के नेतृत्व में भारत ने एक ऐसा कारनामा कर दिखाया था जो तब तक असंभव माना जाता था.
इस जीत के बाद इंग्लैंड में भी वाडेकर के नेतृत्व में भारत फिर से विजेता बना. भारतीयों ने इन दोनों श्रृंखलाओं के आंखोंदेखा हाल को अपने रेडियो सेट्स पर रातों में जाग-जागकर सुना था.
लाइव टीवी प्रसारण से पहले के दौर में दूर देशों से रेडियो प्रसारण की खसखसाहट का अपना जादू था, जहां लोगों को टोनी कोजियर और जॉन आरलॉट की आवाजों के माध्यम से मैदान पर चल रहे दृश्यों की कल्पना करनी पड़ती थी. लेकिन यह शायद ही अकेले-अकेले लिया जानेवा ला अनुभव था.
लोग पान की दुकानों, बस स्टॉपों पर या घरों में परिवार तथा दोस्तों के साथ ट्रांजिस्टर सेटों को घेरकर जमा हो जाते थे. यह क्रिकेट का मामला नहीं था, बल्कि इतिहास का मामला था, राष्ट्रीय गर्व का मामला था- हालांकि यह गर्व उग्र राष्ट्रवादी या विजयोन्मादी नहीं था.
टीम के वापस लौटने पर इसका स्वागत फूलों और पुरस्कारों से किया गया, लेकिन उन्होंने शायद ही कोई बड़ी कमाई की- उन्हें बहुत साधारण वेतन दिया जाता था और वे सब अपने उन्हीं साधारण घरों में लौटे जिसमें वे रहा करते थे. किसी ने भी पेंट हाउस नहीं खरीदा या किसी ने करोड़ों के विज्ञापन करार पर दस्तखत नहीं किया.
फारुख इंजीनियर एकमात्र व्यक्ति थे, जिनका ब्रिल क्रीम के साथ करार था; 1980 के दशक में अन्य लोग इसमें शामिल हुए, लेकिन उनकी फीस सुनकर आज हंसी ही आ सकती है.
जब यह हो रहा था, उसी समय पूर्वी सीमा पर एक नई समस्या खड़ी हो रही थी- हजारों शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भारत आ रहे थे, जहां पाकिस्तानी सेना बर्बरतापूर्वक हत्याएं कर रही थीं और मुक्ति वाहिनी का दमन कर रही थी. एक करोड़ के करीब शरणार्थी भारत में थे.
राजनयिकों ने यह मानवीय विभीषिका दुनिया के संज्ञान में लाने की कोशिश की, लेकिन भारत की चिंताओं को लेकर शायद ही किसी ने कोई हमदर्दी दिखाई- अमेरिका ने न सिर्फ इन दावों को खारिज कर दिया बल्कि बंगाल की खाड़ी में यूएसएस इंटरप्राइज नामक अपना जंगी बेड़ा भेज दिया जो कि भारत को सैन्य कार्रवाई की धमकी देने वाला एक भड़काऊ कदम था.
भारत में हालात विस्फोटक होते जा रहे थे; भारत को न सिर्फ इन शरणार्थियों को आश्रय देना पड़ रहा था और उनका पेट भरना पड़ रहा था बल्कि उसके ठीक पड़ोस में इस तरह की अशांति और सैन्य कार्रवाई एक सुरक्षा चिंता का सबब भी थी.
दोनों देशों की सीमाओं पर सेना को तैनात करके रखा गया था और 3 दिसंबर को भारत युद्ध में शामिल हो गया. सैन्य बलों की खबरें रेडियो तरंगों पर चढ़कर आईं.
भारतीयों ने इसे कई तरह से महसूस किया- दिन के समय साइरन कई बार बजा करते थे और रात के वक्त ज्यादातर शहरों में पूरी तरह से ब्लैकआउट होता था, खासकर सीमा के पास के शहरों में और लोगों से ताकीद की गई थी कि उनकी खिड़कियों से कोई रोशनी बाहर न निकले.
यह एक तनावपूर्ण स्थिति थी, लेकिन 13 दिनों के भीतर पाकिस्तानी सेना ने समर्पण कर दिया और समर्पण की संधि पर दस्तखत करते हुए जनरल नियाजी की तस्वीर लोगों की याददाश्त में आज भी दर्ज है. एक तरह से कहें तो यह उस साल के लायक समापन था. इंदिरा को दुर्गा का अवतार माना जाने लगा था.
बेशक, ये घटनाएं उस दौर के भारत के स्याह हकीकतों पर पर्दा नहीं डालतीं. अर्थव्यवस्था पिछले कुछ वर्षों के हिसाब से बेहतर प्रदर्शन कर रही थी, फिर भी इसकी वृद्धि दर निराशाजनक तौर पर महज 3 फीसदी थी.
खाद्यान्न की कमी बनी हुई थी और भारत को पीएल 480 कार्यक्रम के तहत अमेरिका से अपमानजनक ढंग से खाद्यान्न का आयात करना पड़ रहा था.
भारत नक्सली कहे जाने वाले चरमपंथी वामपंथी समूहों की तरफ से भी आंतरिक विद्रोह का सामना कर रहा था. उस समय नक्सली शब्द भारतीयों के लिए नया-नया था और ये मुख्य तौर पर पश्चिम बंगाल के गांवों और शहरों में सक्रिय थे और इसने दिल्ली, बॉम्बे और कोलकाता और उत्तर भारत के सुदूर इलाकों को भी प्रभावित किया था.
पढ़े-लिखे शिक्षित युवा गांव- गांव जाकर क्रांति का संदेश पहुंचा रहे थे- जमींदार और अन्य लोगों की हत्याएं की गईं जिसके जवाब में सरकार ने जवाबी कार्रवाई की.
कोलकाता में जहां कि नक्सलवाद ने भद्रलोक युवाओं को काफी प्रभावित किया था, बमों के धमाके निरंतर होते रहते थे और मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में प्रशासन से सख्त दमनात्मक कार्रवाई करते हुए बड़ी संख्या में युवक-युवतियों को जेल में डालने का काम किया.
इंदिरा गांधी को मालूम था कि उन्हें इन समस्याओं का समाधान करना है और उनकी जीतों की चमक जल्दी ही फीकी पड़ने लगी. 1973 का वैश्विक तेल संकट भारत के लिए एक बड़ा धक्का था और उसके बाद छात्रों के विद्रोह की शुरुआत हुई.
पहले बिहार में उसके बाद अन्य जगहों पर. 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस ने रेलवे हड़ताल का नेतृत्व किया, जो 20 दिनों तक चली जिसने इंदिरा गांधी को हिला दिया और विपक्ष को, जिन्हें जयप्रकाश नारायण के रूप में एक नेता मिल गया था, गोलबंद करने का काम किया.
किसी जमाने में नेहरू के दोस्त रहे जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए थे. 1974 तक वे एक असाध्य शत्रु में तब्दील हो चुके थे और युवा और बाद में विपक्षी दल उनमें अपना नेता देखने लगे थे.
नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया और सैनिकों को अपने शस्त्र डाल देने का आह्वान किया. गांधी ने इसमें भारत को अस्थिर करने की अंतरराष्ट्रीय साजिश देखी और जब हालात उनके हाथ से बाहर चले गए तो उन्होंने 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी.
1974 में भारतीय क्रिकेट टीम लॉर्ड्स के मैदान पर इंग्लैंड के खिलाफ महज 42 रन पर धराशायी हो गई. एक नये देश के तौर पर बांग्लादेश की शुरुआत डगमगाहट भरी रही और मुजीबुर्रहमान की 1975 में हत्या कर दी गई. पाकिस्तान के साथ रिश्ते बद से बदतर हो गए. 1971 की उमंग काफूर हो चुकी थी.
फिर भी 1971 एक ऐसे साल के तौर पर दर्ज होकर रह गया जब मुश्किल यथार्थ के बीच भी भारत ने अपने बारे में अच्छा महसूस किया और जो पुराने और नए के बीच एक विभाजक रेखा बन गया. यह सिर्फ आशा और उम्मीद का वर्ष नहीं था, भारत में छिपे जीत के जज्बे की आत्मपहचान का वर्ष भी था.
इसने कई चीजों को बुनियादी तौर पर बदल डाला- कुछ को बेहतर के लिए, जबकि कुछ को और बुरे के लिए. लेकिन इन चीजों के कारण ही यह आज भी एक यादगार साल बन कर रह गया है.