पश्चिम बंगाल में आठ चरणों के मतदान कार्यक्रम को भाजपा की रणनीति का हिस्सा बताया जा रहा है, हालांकि ममता बनर्जी भी अप्रत्याशित रूप में लंबे इस मतदान कार्यक्रम का लाभ अपने उम्मीदवारों के लिए डटकर प्रचार के साथ ही हरेक दौर के लिए सापेक्ष रणनीति बनाने के लिए उठा सकती हैं.
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की जीत और भाजपा के 100 सीट पर सिमटने के प्रति प्रशांत किशोर का आत्मविश्वास क्या आठ चरण लंबे मतदान कार्यक्रम से प्रेरित है?
क्या भाजपा एवं गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी रणनीति के अतिरेक में पश्चिम बंगाल में मतदान को महीने भर लंबा खींचकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को तसल्ली से राज्य भर में चुनाव प्रचार का मौका दे दिया?
क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस एवं भाजपा विरोधी तीसरा मोर्चा बंगीय अस्मिता को आरएसएस/भाजपा से महफूज रखने के लिए ही बनाया गया है?
मतदान कार्यक्रम घोषित होने के बाद से भाजपा के कानफोड़ू प्रचार में आया अपेक्षाकृत ठहराव कहीं अपनी रणनीतिक चूक का उसे हुआ एहसास का प्रतीक तो नहीं है?
सुगबुगाहट यह भी है कि इस चूक की भरपाई तथा ममता ‘पिशी’ की काट के लिए भाजपा आखिरी मौके पर किसी लोकप्रिय बंगाली को चुनाव प्रचार में उतारने अथवा अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने का दाव चल सकती है.
इस संभावना से इनकार कतई नहीं किया जा सकता क्योंकि अमित शाह मतदान के हरेक चरण की थाह लेकर अगले चरण में अपनी रणनीति रातोंरात बदल देते हैं. यूपी में 2017 का विधानसभा चुनाव और फिर 2019 का आम चुनाव इसका मौजूं सबूत है.
यूं भी अपने बुजुर्गों लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी एवं शांता कुमार को मार्गदर्शक मंडल में खुड्डेलाइन लगाने के बावजूद सत्ता की खातिर कर्नाटक में 78 साल के बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाए हुए है. अब केरल में 86 साल के बुजुर्ग मेट्रोमैन ई श्रीधरन को चुनाव लड़ाकर भाजपा अवसरवाद की पराकाष्ठा पर है.
इससे साफ है कि सत्ता पर कब्जे के लिए मौजूदा भाजपा किसी भी हद तक जा सकती है. भाजपा की इस प्रवृत्ति की हाल में हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपने संस्मरणों में कड़ी निंदा की है.
भाजपा/जनसंघ के सबसे बड़े नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खरीद-फरोख्त पर 1996 में कहा था, ‘मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य हूं, सदस्यों ने मेरा व्यवहार देखा, मेरा आचरण देखा, लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा.’
बहरहाल पश्चिम बंगाल की जमीनी राजनीतिक हकीकत और वोटों के समीकरणों का ठोस आधार ही ये सवाल उपजा रहे हैं. राज्य में भाजपा के कानफोड़ू और दिखावे से भरपूर प्रचार के जवाब में तृणमूल कांग्रेस तथा कांग्रेस एवं वाममोर्चे ने जो रणनीतिक सूझबूझ दिखाई है उसका असर दो मई के चुनाव परिणाम पर पड़ना तय है.
कांग्रेस-वाममोर्चा-आईएसएफ के महाजोट से इनका वोट एकजुट रहने और भाजपा को तगड़ा झटका लगने के आसार हैं. साल 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस एवं वाममोर्चा चूंकि अलग-अलग लड़े थे इसलिए उनका ज्यादातर वोट भाजपा की झोली में चला गया था.
उसी की बदौलत भाजपा 41 फीसदी वोट पाकर राज्य में लोकसभा की कुल 42 में 18 सीट जीतने में कामयाब रही. यह दीगर है कि 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने महज तीन एवं ममता ने 211 सीट जीती थीं. इसीलिए 2019 के दोहराव से बचने की खातिर केरल में सत्ता के लिए प्रतिद्वंद्विता के बावजूद बंगाल में कांग्रेस ने वाम मोर्चे से हाथ मिलाया है.
इससे जनसभाओं में उनके वक्ता भी बढ़ गए जबकि भाजपा के पास तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह से लेकर प्रदेश के सदर दिलीप घोष तथा टीएमसी त्यागने वालों नेताओं सहित केंद्रीय तथा राज्यों के मंत्री आदि सैकड़ों वक्ता हैं.
उसके बरअक्स टीएमसी तो भाजपा का पासंग भी नहीं है. उसकी सबसे लोकप्रिय, धाकड़ एवं वाचाल वक्ता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही हैं.
उनके अलावा टीएमसी में अभिषेक बनर्जी, सौगत राय, महुआ मोइत्रा आदि मुट्ठी भर वक्ता ही ऐसे हैं जिनका पूरे राज्य में प्रभाव हो. उसके ज्यादातर नेता अपने-अपने जिलों अथवा अंचलों में ही लोकप्रिय हैं.
यह दीगर है कि राज्य की राजनीति में चार दशक से सक्रिय एवं एक दशक से सत्तारूढ़ ममता बनर्जी का दलीय संगठन वास्तव में तृणमूल यानी जड़ों तक पैठा हुआ है.
चुनावी जीत की दृष्टि से इस अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य की पुष्टि चुनाव आयोग द्वारा महीने भर लंबा मतदान कार्यक्रम बनाने से भी हो रही है.
इससे स्पष्ट है कि भाजपा गुजरात अथवा राजस्थान में अपने मजबूत संगठन के मुकाबले पश्चिम बंगाल में पार्टी संगठन की जमीनी पकड़ से आश्वस्त नहीं है. इसीलिए भाजपा ने अपनी कमी की भरपाई लंबे मतदान कार्यक्रम के जरिये अर्धसैनिक बलों की निगरानी बढ़ाकर करने की रणनीति अपनाई है.
इससे टीएमसी में सेंध लगाने में कामयाबी के बावजूद भाजपा का कमतरी का एहसास स्पष्ट झलक रहा है. उसे समझ आ गया कि बंगाली नेताओं तथा गैर बंगाली कार्यकर्ताओं के बूते बंगाल का चुनावी समर फतह नहीं किया जा सकता.
जीत के लिए जमीन पर संगठन चाहिए और उस कमी की भरपाई भाजपा एक चरण से दूसरे चरण के बीच अर्धसैनिक बलों के पीछे-पीछे अपनी पैदल सेना यानी बंगाली कार्यकर्ताओं को भी अगले दौर के मतदान वाले क्षेत्र में तैनात करके करेगी.
भाजपा ने मतदान कार्यक्रम को जहां बांग्लाभाषी कार्यकर्ताओं की कमी पाटने के लिए 27 मार्च से 29 अप्रैल तक खींचा है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप में ममता बनर्जी को भी राहत दे दी.
आठ दौर का फायदा उठाकर ममता अब पूरे राज्य में आसानी से धुआंधार चुनाव प्रचार कर पाएंगी. बंगाल की खाड़ी और हिमालय के बीच में बसे पश्चिम बंगाल में सात अंचल, पांच डिवीजन, 23 जिले, 46 सब डिवीजन और 40,996 गांव हैं.
इनमें चुनाव लड़ रहे उनके 294 उम्मीदवारों में से किसी को भी कम से कम यह मलाल नहीं रहेगा कि उसके चुनाव क्षेत्र में यदि दीदी की सभा हो जाती तो वह चुनाव जीत जाता/जाती.
अभी से मानें, तो राज्य के कुल आठ करोड़, 33 लाख मतदाताओं को लुभाने के लिए पूरे दो महीने चुनाव प्रचार चलेगा. इतने समय में ब्लॉक स्तर तक चुनाव सभा मुख्यमंत्री कर ही लेंगी.
उधर, भाजपा भी लंबे मतदान कार्यक्रम का फायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी एवं योगी आदित्यनाथ जैसे अपने प्रमुख वक्ताओं का भाषण बंगाल की अधिक से अधिक जनसभाओं में करवाकर ध्रुवीकरण का अपना दांव भरपूर आजमा सकेगी.
राज्य में मतदान कार्यक्रम लंबा रखने के पीछे भाजपा की मजबूरी अन्य तीन राज्यों केरल, तमिलनाडु एवं असम तथा एक केंद्रशासित प्रदेश पुदुचेरी में विधानसभा चुनाव में जनसभाओं के लिए अपने प्रमुख वक्ताओं को भेजने की भी है.
अपने प्रतिद्वंद्वियों भाजपा, कांग्रेस एवं वामामेर्चा के मुकाबले ममता बनर्जी सारा समय पश्चिम बंगाल में ही लगाएंगी. उन्हें किसी भी अन्य राज्य में टीएमसी को विधानसभा चुनाव नहीं लड़ाना है.
इसलिए ममता अप्रत्याशित रूप में लंबे मतदान कार्यक्रम का फायदा अपने उम्मीदवारों के लिए डटकर प्रचार के साथ ही हरेक दौर के लिए सापेक्ष रणनीति बनाने के वास्ते उठा पाएंगी.
ममता अपने एक दशक के काम पर अरविंद केजरीवाल की तरह वोट मांगने के साथ ही सेकुलरिज्म बनाम कम्युनलिज्म के मुद्दे पर भी समर्थन जुटा सकती हैं. साथ में ‘जॉय बांग्ला’, ‘बंगाल की बेटी चाहिए’ एवं बाहरी बनाम माटीपुत्री जैसे अस्मितापरक नारे तो तृणमूल कांग्रेस उछाल ही चुकी है.
राज्य की अस्मिता अथवा नेता की छवि से जुड़े नारे गढ़ने में यूं भी प्रशांत किशोर को महारत हासिल है. बिहार में साल 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू-कांग्रेस महागठबंधन के लिए भी प्रशांत ने तत्कालीन एवं भावी मुख्यमंत्री नीतीश की साख को भुनाने वाला अस्मितापरक नारा ही दिया था.
तब महागठबंधन का प्रमुख नारा था,’बिहार में बहार है-नीतीशे कुमार है’. इसी तरह उन्होंने आंध्र प्रदेश में वाईएस जगनमोहन रेड्डी और उनके दिवंगत पिता राजशेखर रेड्डी के व्यक्तित्व को आंध्र की अस्मिता से जोड़ते नारे गढ़े थे.
पंजाब में पिछले विधानसभा चुनाव में प्रशांत ने कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री उम्मीदवार कैप्टन अमरिंदर सिंह को सिख अस्मिता से जोड़ने वाले नारे दिए थे.
अमरिंदर का अपना व्यक्तित्व भी हालांकि इतना अहम था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हवा के बावजूद उन्होंने भाजपा के प्रमुख चेहरे अरुण जेटली को अमृतसर लोकसभा सीट पर हरा दिया था.
इसके साथ ही पंजाब के किसानों के बिजली-कृषि संबंधी बिलों की माफी सहित जनाकांक्षा के अनुकूल अनेक वायदे अमरिंदर एवं कांग्रेस की ओर से प्रशांत ने अपने सर्वेक्षण की बिनाह पर तय किए थे.
पश्चिम बंगाल में भी हरेक व्यक्ति के लिए पांच लाख रुपये तक इलाज का स्वास्थ्य बीमा एवं किसानों, प्रवासी मजदूरों, बेटियों एवं महिलाओं तथा युवाओं के लिए भी अनेक वायदे ममता ने चुनाव से ऐन पहले किए हैं.
इनके अलावा ममता ने पिछले दस साल में राज्य के हरेक जिले में इलाज के लिए सुविधा संपन्न सरकारी अस्पताल, विद्यालय, पानी के कनेक्शन बढ़ाने तथा किसानों, बुजुर्गों, विधवाओं, गरीबों एवं मछुआरों को आर्थिक सहायता देने के इंतजाम किए हैं. उनसे तृणमूल का जनाधार बढ़ा और स्थिर हुआ है.
भाजपा ने सुवेंदु अधिकारी और उनके खानदान सहित ममता के अनेक विधायकों एवं स्थानीय नेताओं सहित फिल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों एवं अन्य बुद्धिजीवियों को तोड़कर अपना जनाधार बढ़ाने की जीतोड़ कोशिश की है. इसके बावजूद चुनाव पूर्व सर्वेक्षण उसके औसतन 100 सीट ही जीत पाने का अनुमान जता पा रहे हैं.
प्रशांत किशोर भी तो भाजपा के 100 सीट पार करने पर राजनीतिक एवं चुनावी प्रबंधन का अपना धंधा छोड़ देने का दावा कर रहे हैं.
जाहिर है कि ममता बनर्जी ने दीदी बनकर जो काम किए आगे से बेटी बनकर उन्हें और बढ़ाने की राह दिखा रही हैं. फिर ‘जॉय बांग्ला’ नारा देकर वे बंगाल की अस्मिता से जुड़ी जनभावना को उभार रही हैं.
प्रधानमंत्री मोदी एवं अमित शाह दोनों ही चूंकि गुजराती हैं इसलिए अपनी अस्मिता को बचाने के लिए बंगालियों का ममता के पीछे फिर से लामबंद हो जाना कतई आश्चर्यजनक नहीं होगा.
आखिर मोदी को भी 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में अंत में गुजराती अस्मिता और अपने 12 साल के शासनकाल की दुहाई देनी पड़ी थी.