‘मनमाने’ तरीके से एफआईआर ख़ारिज कर रहे हैं इलाहाबाद और उत्तराखंड हाईकोर्ट: सुप्रीम कोर्ट

शीर्ष अदालत ने हत्या के एक मामले में प्राथमिकी रद्द करने की याचिका पर उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध अपील पर सुनते हुए यह टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा कि इस बारे में दिए उनके आदेश के बावजूद इलाहाबाद और उत्तराखंड हाईकोर्ट ‘विवेक का इस्तेमाल किए बगैर’ ही एक के बाद एक ऐसे आदेश दे रहे हैं.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बीते सोमवार को कहा कि इलाहाबाद और उत्तराखंड हाईकोर्ट कोई बलपूर्वक कार्रवाई न करने या गिरफ्तारी से संरक्षण के लिए ‘विवेक का इस्तेमाल किए बगैर’ ही एक के बाद एक आदेश पारित कर रहे हैं, जबकि शीर्ष अदालत ने पहले एक आदेश में उनसे सावधानी से इस अधिकार का इस्तेमाल करने को कहा था.

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा, ‘हमने देखा है कि मैसर्स निहारिका इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में मामलों को खारिज करने की याचिकाओं पर हमारे फैसले के बाद भी दो उच्च न्यायालय- इलाहाबाद और उत्तराखंड बिना विवेक के ये आदेश पारित कर रहे हैं.’

सर्वोच्च अदालत ने हत्या के एक मामले में प्राथमिकी रद्द करने की याचिका पर उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की.

पीठ ने कहा, ‘यह गंभीर मामला है. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई थी. उच्च न्यायालय की बेचैनी देखिए कि उसने निर्देश दिया है कि शख्स को 10 अगस्त तक समर्पण करना चाहिए और जमानत पर फैसला उसी दिन होगा और यदि जमानत अर्जी खारिज कर दी जाती है तो सत्र अदालत को उसी दिन जमानत आवेदन पर सुनवाई करनी चाहिए.’

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘यह आदेश हैरान करने वाला है.’ उसने कहा कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में दर्ज किया है कि प्राथमिकी रद्द करने की प्रार्थना पर जोर नहीं दिया गया है और उसके समक्ष अन्य अनुरोध ‘अहानिकारक’ हैं और इसलिए आरोपी को 10 अगस्त से पहले समर्पण करना चाहिए और यदि जमानत अर्जी दायर की जाती है तो उस पर विचार किया जाएगा तथा उसी दिन फैसला सुनाया जाएगा.

पीठ ने कहा कि वह मुद्दे का अध्ययन करेगी. उसने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर उत्तराखंड सरकार को नोटिस जारी किया है.

जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस शाह की पीठ ने 13 अप्रैल को निहारिका इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाम महाराष्ट्र के मामले में कुछ निर्देश दिए थे और कहा था कि पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध के मामले में जांच करने का वैधानिक अधिकार है और यह दंड प्रक्रिया संहिता के संबंधित प्रावधानों के तहत उसका कर्तव्य भी है व अदालत संज्ञेय अपराधों के मामले में किसी जांच को रोकेगी नहीं.

शीर्ष अदालत ने कहा था कि प्राथमिकी रद्द करने के अधिकार का इस्तेमाल सावधानी के साथ संयम से होना चाहिए और ऐसा केवल दुर्लभ मामलों में होना चाहिए, जहां प्राथमिकी में किसी संज्ञेय अपराध या किसी तरह के अपराध का खुलासा नहीं किया गया है.

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘किसी प्राथमिकी/शिकायत पर विचार करते समय, जिसे रद्द करने की मांग की गई है, अदालत एफआईआर में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता की जांच शुरू नहीं कर सकती है.’

न्यायालय ने कहा कि किसी शिकायत/प्राथमिकी को रद्द करना एक सामान्य नियम के बजाय एक अपवाद होना चाहिए.

शीर्ष अदालत ने कहा था कि न्यायालय की असाधारण और अंतर्निहित शक्तियां कोर्ट को अपनी मर्जी के अनुसार काम करने के लिए मनमाना अधिकार क्षेत्र प्रदान नहीं करती हैं.

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