देश के 15 राज्यों में लगभग 1400 बच्चों के बीच कराए गए एक सर्वे से पता चला है कि ग्रामीण क्षेत्रों के 37 फ़ीसदी बच्चे बिल्कुल भी नहीं पढ़ पा रहे हैं. रिपोर्ट में कहा गया कि वे न केवल पढ़ने के अधिकार बल्कि स्कूल जाने से मिलने वाले दूसरे फ़ायदों जैसे कि सुरक्षित माहौल, बढ़िया पोषण और स्वस्थ सामाजिक जीवन से भी वंचित हो गए.नई दिल्ली: कोरोना महामारी के बीच लंबे अरसे तक स्कूल बंद करने के संबंध में किए गए एक सर्वे से पता चला है कि ग्रामीण इलाकों के सिर्फ आठ फीसदी बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं और 37 फीसदी बिल्कुल भी नहीं पढ़ पा रहे हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल पूरे 17 महीने यानी कि 500 से भी ज्यादा दिनों से बंद हैं. इस दौरान बहुत कम सुविधा संपन्न बच्चे अपने घरों के सुखद और सुरक्षित माहौल में ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए.
लेकिन स्कूल की तालेबंदी की वजह से बाकी बच्चों के लिए कोई चारा नहीं बचा. कुछ ने ऑनलाइन या ऑफलाइन पढ़ाई जारी रखने के लिए संघर्ष किया. कई दूसरे बच्चों ने हार मान ली और काम-धंधा न होने के चलते गांव या बस्ती में समय काटने लगे.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘वे न केवल पढ़ने के अधिकार बल्कि स्कूल जाने से मिलने वाले दूसरे फायदों जैसे कि सुरक्षित माहौल, बढ़िया पोषण और स्वस्थ सामाजिक जीवन से भी वंचित हो गए.’
स्कूल चिल्ड्रेंस ऑनलाइन एंड ऑफलाइन लर्निंग (स्कूल) नामक इस रिपोर्ट को कोऑर्डिनेशन टीम (निराली बाखला, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और रीतिका खेड़ा तथा रिसर्चर विपुल पैकरा) ने तैयार की है.
यह स्कूल सर्वे अगस्त 2021 में 15 राज्यों (असम, बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) के करीब 1400 बच्चों के बीच कराया गया है.
सर्वे में शामिल करीब आधे बच्चे कुछ ही शब्द पढ़ पाए. ज्यादातर अभिभावकों का मानना है कि लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई.
रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 28 फीसदी बच्चे ही नियमित रूप से पढ़ाई कर रहे हैं. वहीं सिर्फ 35 बच्चे कभी-कभी पढ़ रहे हैं. सर्वे में शामिल करीब 60 फीसदी परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और करीब 60 फीसदी दलित या आदिवासी समुदायों के हैं.
इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सर्वे में शामिल अधिकतर परिवारों के पास स्मार्टफोन नहीं था. जिन परिवारों के पास स्मार्टफोन है, उनमें भी नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरी इलाकों में महज 31 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 15 फीसदी है.
खासकर ग्रामीण इलाकों में एक और बड़ी बाधा यह है कि स्कूल ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज रहा है या अगर भेज भी रहा है तो अभिवावकों को उसकी जानकारी नहीं है.
रिपोर्ट के मुताबिक, इस सर्वे के 30 दिन पहले तक ज्यादातर बच्चों की अपने शिक्षक से भेंट नहीं हुई थी. कुछ ही अभिभावकों ने बताया कि पिछले तीन महीने के दौरान कोई शिक्षक घर पर नहीं आया या पढ़ाई में उनके बच्चे की कोई मदद नहीं की.
उन्होंने कहा, ‘गाहे-बगाहे उनमें से कुछेक को वॉट्सऐप के जरिये यूट्यूब लिंक फॉरवर्ड करने जैसे सांकेतिक ऑनलाइन इंटरैक्शन को छोड़कर ज्यादातर शिक्षक अपने छात्रों से बेखबर लगते हैं.’
इस सर्वे से एक और चिंताजनक बात सामने आई है कि स्कूल बंद होने के साथ-साथ सर्वे वाले क्षेत्रों में मिड-डे मील भी बंद कर दिया गया है.
सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों में से करीब 80 फीसदी ने बताया कि पिछले तीन महीने के दौरान उनके बच्चों को मिड-डे मील के बदले कुछ अनाज (मुख्यत: चावल या आटा) मिला था. लेकिन बहुत कम लोगों को कोई नकद मिला और काफी लोगों को उस दौरान कुछ भी नहीं मिला.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘कुल मिलाकर मिड-डे मील के विकल्पों का वितरण काफी छिट-पुट और बेतरतीब मालूम होता है.’
सर्वे के दौरान ज्यादातर अभिभावकों का मानना था कि लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चों की पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई है. यहां तक कि शहरी अभिभावकों के बीच भी ऐसा मानने वालों का अनुपात 65 फीसदी था, जो कि बड़ी संख्या है.
कुल मिलाकर केवल चार फीसदी अभिभावकों का मानना था कि लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चे की पढ़ने-लिखने की क्षमता सुधरी है.
मार्च 2020 में जब लॉकडाउन शुरू हुआ था, तब करीब 20 फीसदी स्कूली बच्चों ने किसी प्राइवेट स्कूल में दाखिला ले रखा था. लॉकडाउन के दौरान कई प्राइवेट स्कूलों ने ऑनलाइन शिक्षा अपनाकर उबरने का प्रयास किया और पुरानी फीस लेना जारी रखा.
लेकिन ऑनलाइन शिक्षा में आने वाले अतिरिक्त खर्चों के चलते कई बच्चों ने प्राइवेट स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूल में एडमिशन ले लिया. रिपोर्ट के मुताबिक करीब 26 फीसदी बच्चों को ऐसा करना पड़ा है.