क्या दलों के आपसी विवादों की छाया में विपक्षी एकता दूर की कौड़ी होती जा रही है

 


भाजपा धर्म व आस्था के नाम पर बनी समाज की जिन दरारों को अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में कामयाब हुई है, उसके ख़िलाफ़ मजबूत चुनौती पेश करना, एक लंबे संघर्ष की मांग करता है. क्या विपक्ष के सभी बड़े-छोटे दल उस ख़तरे के बारे में पूरी तरह सचेत हैं? क्या वे समझते हैं कि यह महज़ चुनावी मामला नहीं है?

सियासत में अदद तस्वीर कभी कभी नए बनते बिगड़ते समीकरणों का संकेत देती है.

यूं तो वह तस्वीर किसी को भी सामान्य लग सकती है, जिसमें एक चुने हुए प्रतिनिधि से- दरअसल एक राज्य की मुख्यमंत्री से एक पूंजीपति हाथ मिला रहा है, लेकिन अगर मुख्यमंत्री का नाम ममता बनर्जी हो- जिन्होंने छह माह पहले ही भाजपा को जबरदस्त शिकस्त दी हो और पूंजीपति का नाम अडानी हो, जिसके सत्ताधारी खेमे से करीबी रिश्ते के बारे में दुनिया जानती है, तो बिल्कुल अलग मायने निकल सकते हैं.

क्या इस मुलाकात को महज शिष्टाचार मुलाकात कहा जा सकता है?वैसे ऐसी कोई मुलाक़ात संभव है इसके बारे में अपने गृहनगर कोलकाता पहुंचने से पहले मुंबई के अपने संक्षिप्त प्रवास के दौरान ही- जब वह अपने मिशन इंडिया प्रोजेक्ट के लिए वहां पहुंची थीं और कांग्रेस से इतर विपक्षी पार्टियों के नेताओं से मिल रही थीं तभी ममता बनर्जी ने इस मुलाकात का संकेत दिया था, जब उन्होंने कहा था कि उन्हें ‘किसान भी चाहिए और अडानी भी चाहिए.’

ध्यान रहेे आज की तारीख में जबकि हम ऐतिहासिक किसान आंदोलन की जीत पर गौर फरमा रहे हैं, जिसके चलते मोदी सरकार तीन ‘काले कृषि कानूनों’ को वापस लेने के लिए मजबूर हुई थी, तब इस बात को भुला नहीं जा सकता है कि आंदोलन के दौरान इस बात के चर्चे आम थे कि अगर यह ‘काले बिल’ लागू होते तो उसके सबसे बड़े लाभार्थी वही होते.

मुंबई की उनकी यात्रा भाजपा के खिलाफ एक ऐसे गठबंधन को ढालने की दिशा में थी जिसमें कांग्रेस न रहे. उनका कहना था कि अब कोई यूपीए ( संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ) नहीं है और कांग्रेस अब किसी विपक्षी गठबंधन का स्वाभाविक नेता होने का दावा नहीं कर सकता है.

चाहे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो या शिवसेना हो, इन दोनों की तरफ से जो आधिकारिक बयान आए हैं, उसमें स्पष्ट है कि उनके इस प्रस्ताव को उन्होंने नकारा है.

वैसे आप मानें या न मानें भारतीय राजनीति इन दिनों कैलिडोस्कोप की तरह रंग बदलती दिख रही है.

अगर हम याद करें तो अपनी पार्टी की ऐतिहासिक जीत- जब उन्होंने मोदी-शाह एवं उनकी पूरी मशीनरी को जबरदस्त शिकस्त दी थी- के महज दो माह बाद दिल्ली की उनकी यात्रा (जुलाई 2021) बिल्कुल अलग अंदाज़ में संपन्न हुई थी.

इस दौरान न केवल उन्होंने विपक्ष के तमाम नेताओं से मुलाकात की थी बल्कि वह निजी तौर पर कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मिलने गईं थी, जहां राहुल गांधी भी मौजूद थे. आपसी बातचीत में उनका जोर ‘विपक्ष की एकता को कैसे मजबूत किया जाए’ इसी पर था.

ध्यान रहे चंद महीनों के अंदर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब आदि में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं और 2014 में सत्तारोहण के बाद भाजपा के लिए यह पहला अवसर है कि वह किसानों के व्यापक जनांदोलन एवं बढ़ते असंतोष के चलते बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर हुई है. उसे यह भी मालूम है कि इतने कम समय में वह अपने चिरपरिचित ध्रुवीकरण के एजेंडा को वह आगे नहीं बढ़ा सकती है और इसलिए वह काफी मुश्किल में भी है.

बकौल अमित शाह 2022 के चुनावों में योगी की हार जीत 2024 में मोदी सरकार की हार जीत का भविष्य तय करने वाली है.

इस पृष्ठभूमि ममता बनर्जी की तीसरा मोर्चा बनाने की अचानक चल पड़ी कोशिश जिसमें वह कांग्रेस को दूर रखना चाहती है, और आए दिन कांग्रेस पर हो रहे हमले निश्चित ही भाजपा के लिए मुंहमांगी मुराद मिली है.

जनतंत्र- जिसे अब्राहम लिंकन नेे ‘लोगों की, लोगों द्वारा, लोगों के लिए चलाई जाने वाली सरकार’ के तौर पर परिभाषित किया- की खासियत यही समझी जाती है कि आप न केवल पार्टी बना सकते हैं बल्कि आप निजी तौर पर हुकूमत के सबसे बड़े ओहदे पर पहुंचने का न केवल ख्वाब देख सकते हैं बल्कि इसे मुमकिन बनाने के लिए कोशिशें भी कर सकते हैं.

जाहिर है फायरब्रांड कही जाने वाली ममता बनर्जी भी अगर वजीरे-आज़म बनने का संकल्प लें या अपनी पार्टी के विस्तार में जुट जाएं तो इसमें बुरा क्या है? कुछ भी तो नहीं!

चिंता की बात इतनी ही है कि वह बेहद जल्दी में दिखती हैं और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस जल्दबाजी में दोस्त और दुश्मन की उनकी पहचान भी गोया धुंधली हो गई है.

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