बाल ठाकरे के पास उनके शिवसैनिकों के लिए एक स्पष्ट योजना और दृष्टिकोण था. आज की तारीख़ में उनके बेटे के पास अपने निराश कैडर के लिए क्या है?ढाई साल तक उद्धव ठाकरे और उनके महाविकास अघाड़ी (एमवीए) ने उन्हें और उनकी सरकार को हटाने की भारतीय जनता पार्टी की सभी साजिशों को नाकाम कर दिया. और हर सफलता के साथ वे ज्यादा मजबूत और आत्मविश्वास से भरते गए कि उनकी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी.
एक राज्य को अपने पंजे से छीने जाने से बौखलाई हुई भाजपा ने एमवीए की जड़ खोदने की कई कोशिशें कीं. इसने उसके लिए काम करने वाले टेलीविजन चैनलों और अपने मित्र एंकरों को खुली छूट दे दी, लेकिन ठाकरे इन सभी हमलों को झेल गए.
शरद पवार की हस्ती इस सरकार के अभिभावक की रही, जिन्होंने हर मसले पर ठाकरे का मार्गदर्शन किया. लेकिन ठाकरे कोई कठपुतली नहीं हैं. उनका अपना व्यक्तित्व है. वे राजनीतिक तौर पर चतुर हैं और उनके कई फैसलों पर उनकी स्पष्ट छाप थी.गठबंधन के तीनों सहयोगी- शिवेसना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस- छोटे-मोटे मनमुटावों के बावजूद कदमताल मिलाकर काम करते नजर आ रहे थे और जनता आमतौर पर ठाकरे से काफी हद खुश थी. उनका शांत आचरण, राज्य को अच्छा शासन मुहैया कराने की उनकी कोशिशें और सबसे बढ़कर शांति बनाए रखने में उनकी सफलता ने उन्हें जनता का दुलारा बना दिया.
यहां तक कि वे लोग भी, जो कि शिवसेना के उपद्रवी व्यवहार को लेकर हमेशा से इसकी आलोचना करते रहे थे और जिन्हें शिवसेना से डर लगता था- आखिर, हैं तो वे बाल ठाकरे के सुपुत्र ही- वे भी उनके नेतृत्व में पार्टी में आए क्रांतिकारी बदलाव को देखकर प्रसन्न और चकित थे. उनके इस्तीफे- जो उन्होंने अपने चिरपरिचित शांत और अविचलित अंदाज में दिया- के बाद इंटरनेट पर भावनात्मक संदेशों का तांता काफी कुछ बयां करने वाला था.कांग्रेस या एनसीपी को इस सरकार की सबसे कमजोर कड़ी माना जाता था लेकिन सरकार को सबसे बड़ा आघात इनसे नहीं लगा, बल्कि उद्धव की अपनी ही पार्टी के सहयोगियों ने उनके साथ दगा किया. पार्टी के कट्टर वफादार एकनाथ शिंदे ने उद्धव के खिलाफ बगावत का नेतृत्व किया और विधायकों की एक बड़ी संख्या को अपने साथ ले गए.
कई पर्यवेक्षक इस बात से हैरान हैं कि ठाकरे के अपनी पार्टी के नेटवर्क या इंटेलिजेंस एजेंसियों ने उन्हें उनके खिलाफ सुलग रही बगावत की चिंगारी के बारे में आगाह क्यों नहीं किया. यह सिर्फ उनके और उनकी पार्टी के लिए एक बड़ी दुर्घटना नहीं है, बल्कि यह एक कमजोर प्रशासन को दिखलाता है. यहां उद्धव का सीधा-सादा व्यक्तित्व उनके काम नहीं आया.
अब ठाकरे इन गुणों को ही- गठबंधन के सहयोगियों को साथ लेकर चलने की उनकी क्षमता और आक्रामक हिंदुत्व को ठंडे बस्ते में डालना- शिंदे ने कई विधायकों के साथ उनके खिलाफ बगावत का कारण बताया है. सेना का लगभग एक तिहाई विधायी दल भी बाहर निकल गया है और उनकी तरफ से बोलने वाले शिंदे का कहना है कि उनकी नाराजगी का भी कारण यही है.
उनकी (विधायकों की) राय क्या है, यह पता नहीं है, लेकिन आज न कल, उन्हें अपने पार्टी समर्थकों और सहयोगियों को जवाब देना होगा.
अपने ही विश्वासपात्र लोगों द्वारा धोखा दिए जाने की बात करने के बाद एक गरिमामय तरीके से पदत्याग करने के बाद ठाकरे के पास 16 के आसपास ही विधायक बचे हैं. उन्हें भी शिंदे द्वारा लालच दिया जा रहा था. लेकिन ठाकरे को इस तात्कालिक मुद्दे से परे सोचना होगा. वे यह साफ तौर पर जानते हैं कि उन्हें मात दे दी गई है, इसलिए सदन में शक्ति परीक्षण औपचारिकता से ज्यादा नहीं रहा.
उनकी असली चिंता भविष्य की है- खुद से ज्यादा शिवसेना की. उन्हें अपने पिता बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत की रक्षा करने की जिम्मेदारी है, जिन्होंने 1966 में शिवसेना की स्थापना की और एक-एक ईंट जोड़कर इसे एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के तौर पर खड़ा किया. उद्धव इस विरासत को न संभाल पाने वाले व्यक्ति के तौर पर याद किया जाना पसंद नहीं करेंगे.उन्हें शिवसेना का पुनर्निर्माण करना होगा और इसे महाराष्ट्र की राजनीति की प्रासंगिक शक्ति के तौर पर एक बार फिर से खड़ा करना होगा. और इसके लिए उन्हें बिना समय गंवाए अपने कैडर के विश्वास की बहाली का काम करना होगा, जो इस वक्त पूरी तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ होने के साथ-साथ उदास और हतोत्साहित भी है.
शिंदे के विद्रोह ने निस्संदेह इस सवाल को सामने रखा है, जो हो सकता है कई शिवसैनिकों के मन में निजी तौर पर पहले से ही चल रहा हो : उद्धव पार्टी को कहां लेकर जा रहे हैं. सिर्फ योजना और दृष्टि की बात नहीं है, वे सेना की दिशा को लेकर भी स्पष्ट नहीं हैं.अतीत में पार्टी को चुनावी लाभ पहुंचाने वाले हिंदुत्व और पार्टी की दबंगई वाली शैली से किनारा करना पार्टी कैडर की समझ में नहीं आया है. इनके बिना शिवसेना एनसीपी यहां तक कि कांग्रेस से अलग कैसे होगी?
पार्टी की स्थापना करते वक्त बाल ठाकरे ने एक साफ एजेंडा सामने रखा था : मराठी मानुष को ज्यादा नौकरियां मिलनी चाहिए. इसके बाद उन्होंने मद्रासियों में खलनायक की खोज की; जिन्हें उन्होंने ‘लुंगीवाला’ कहकर पुकारा, जो नौकरियां न होने का कारण थे- वे बाहर से आए थे और मराठी भाषियों को मिलने वाली नौकरियों को हड़प रहे थे. मैं आपको ये नौकरियां दिलवाऊंगा- यह एक सरल विचार था जिसने युवाओं को अपील किया, जिन्होंने 1960 में महाराष्ट्र राज्य के गठन के बाद से अपने जीवन में कोई भौतिक बदलाव आते हुए नहीं देखा था.ये मूल वादे पूरे हुए या नहीं, यह एक अहम सवाल है, लेकिन निश्चित तौर पर नगर निगम और राज्य सरकार में नौकरियों में मराठियों का दबदबा है. मराठीभाषी लोगों में आत्मविश्वास का भाव महसूस किए बगैर नहीं रहा जा सकता.
समय के साथ-साथ निशाने बदलते गए. पहले निशाने पर आए उत्तर भारतीय, फिर मुस्लिम, जिसने 1995 के चुनाव में काफी फायदा पहुंचाया, जब शिवसेना ने भाजपा के साथ सरकार का गठन किया. ये चुनाव बंबई के इतिहास के सबसे बड़े 1992-93 के दंगे के बाद हुए थे, जब सैनिकों मुस्लिमों को निशाना बनाया था और सैकड़ों लोगों की जानें गई थीं.
ठाकरे सीनियर ‘सरकार’ थे, लेकिन फिर भी उन्हे भी तीन विश्वस्त लोगों- छगन भुजबल, नारायण राणे और अपने प्रिय भतीजे राज ठाकरे की बगावत का सामना करना पड़ा, जिसने उन्हें सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई. लेकिन इससे सेना को नुकसान नहीं हुआ और इसका श्रेय शिवसैनिकों की अटूट वफादारी को जाता है.
2012 में जब बाल ठाकरे की मृत्यु हुई, उस समय पार्टी मजबूत स्थिति में थी ओर 2014 में इसने भाजपा के जूनियर पार्टनर के तौर पर चुनाव में जीत हासिल की; यह जीत 2019 में दोहराई गई, लेकिन उद्धव ठाकरे ने इस रिश्ते को तोड़कर एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का फैसला किया.
अब उन्हें एक बहुत बड़ा आघात लगा है, जिससे उबरने में उन्हें बहुत लंबा समय लगेगा. उन्हें नए विचार के साथ सामने आना होगा- रोजगार का परिदृश्य बदल गया है और किसी भी अन्य राज्य की तरह महारष्ट्र के युवा भी निजी क्षेत्र में नए मौकों की तलाश कर रहे हैं. हिंदुत्व के मुद्दे को भाजपा समर्थित शिंदे ने हथिया लिया है- उद्धव हिंदुत्व का दांव आजमा सकते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वे बस हिंदुत्व के वोटबैंक के बस एक और दावेदार बन कर रह जाएंगे. सवाल है कि उद्धव के पास देने के लिए नया -क्या है?
इसके साथ ही एक सवाल नाम का भी है? यह नाम किसे मिलेगा? शिंदे असली शिवसेना होने का दावा कर सकते हैं और उन्होंने पहले ही उद्धव समर्थकों को व्हिप जारी कर दिया है. इस मसले का समाधान चुनाव आयोग या शायद कोर्ट द्वारा होगा. लेकिन इस लड़ाई का प्रभाव नुकसानदेह ही होगा.
भाजपा के लिए शिवसेना को हमेशा के लिए खत्म कर देना, उनके एजेंडा में काफी ऊपर है. उद्धव को यह मालूम है. शायद शिंदे को भी यह पता है- उन्हें भी यह एहसास होगा कि उन्हें काफी सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा और बस कठपुतली बन कर नहीं रह जाना होगा, बल्कि अपने धड़े को भी संभाल कर रखना होगा.
लेकिन उनसे कहीं बड़ी चुनौती उद्धव के सामने है – उन्हें यह निश्चित करना होगा कि उनकी पार्टी इस संकट को झेल जाए और एक बार फिर अपने पुराने गौरव को हासिल कर ले. इसके लिए उन्हें इसी क्षण से शिवसेना की डूबती नैया को संभालना होगा.