इसमें संदेह नहीं कि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में बिल्कुल निहत्थे चल रहे हैं, उनकी रक्षा के लिए कमांडो तैनात हैं पर वे वेध्य हैं. बड़ी बात यह है कि वे निडर हैं.3,000 किलोमीटर की दूरी पार करने का लक्ष्य रखकर 100 दिनों से अधिक से चल रही ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में हम पांच लेखक- नरेश सक्सेना (लखनऊ), पंकज चतुर्वेदी (कानुपर), व्योमेश शुक्ल (बनारस) और दिल्ली से मैं और अशोक कुमार पांडेय 4 जनवरी को शामिल हुए और कुछ कदम चले. हमें यात्रा में शामिल होने के लिए अनुरोध करता राहुल गांधी का पत्र मिला था.
हम पहुंच तो गए थे 2 बजे के करीब बागपत क्षेत्र के ट्यौढ़ी गांव में जहां से यात्रा में शामिल होने को तय हुआ था. पूरे क्षेत्र में यात्रा को लेकर बड़ा उत्साह और गहमागहमी थी. यात्रा कई जत्थों में होती है. राहुल गांधी के जत्थे के कुछ देर पहले तीन जत्थे निकले जिनमें कई राजनेता शामिल थे जिनमें से कुछ ने हमें पहचाना भी.
सारी यात्रा के दौरान एक ही नारा गूंजता रहा जो बहुत सीधा था: ‘नफ़रत छोड़ो, भारत जोड़ो’. कभी-कभार ‘राहुल गांधी ज़िंदाबाद’ के नारे भी लगे. पर किसी पार्टी के पक्ष में या किसी पार्टी के विपक्ष में कोई नारा हमने नहीं सुना. जो गाना बज रहा था वह था ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’.
ट्यौढ़ी से पहले हम एक और गांव में रुके. वहां भी लोग सड़क के किनारे जमा थे. एक महिला ने, जो थोड़ी-सी धूप में कुर्सी पर बैठी थीं, सहज भाव से हम लोगों के लिए कुर्सी ख़ाली कर दी. यह गन्ने का इलाका है. थोड़ी देर में एक किसान बिल्कुल ताज़ा नया बना गरम-सा गुड़ और गन्ने के रस की एक बोतल हमारे लिए ले आया. गुड़ बहुत स्वादिष्ट था. बाद में ट्यौढ़ी में हमने गरम समोसे तीख़ी-चटपटी चटनी के साथ खाए और गाजर का हलवा भी.
राहुल गांधी बहुत तेज़ चलते हैं और अकेली एक टीशर्ट पहने थे जबकि हम सभी काफ़ी गर्म कपड़े, ठंड से बचने के लिए जो काफ़ी थी, अपने शरीरों पर लादे हुए थे. घेरे की मोटी रस्सी में उनके आने पर हमें शामिल कर लिया गया. वह जत्था बहुत तेज़ चल रहा था और हम पिछड़ रहे थे. मैं तो थोड़ा तेज़ चल पा रहा था पर नरेश सक्सेना के लिए यह संभव न था. सो वे पीछे छूट गए और उनकी चिंता में पंकज चतुर्वेदी भी. मुझे घेरे से निकालकर एक कार में बैठा दिया गया ताकि मैं आगे उस जगह पर पहुंच जाऊं जहां चाय पीने के लिए रुकने का मुक़ाम था. वह गैरेजनुमा जगह थी और उसके बाहर भारी भीड़ और धक्का-मुक्की का माहौल था.
इंतज़ार करते हुए एक बार तो मन हुआ कि मिलने का मोह छोड़कर वापस चला जाऊं लेकिन तभी दरवाज़ा खुला. मेरा नाम घोषित हुआ और मैं अंदर दाखि़ल कर दिया गया. वहां राहुल के साथ चाय पर लगभग 15 मिनट तक बातचीत हुई. फिर उन्होंने कहा कि आप मेरे साथ चलेंगे तो मैंने हामी भर दी. सो वहां से निकलकर सड़क पर और 15 मिनट चला. सारे समय राहुल मेरा हाथ थामे हुए थे ताकि पीछे से कोई धक्का न लग जाए. दो-तीन बार मेरे इसरार पर उन्होंने मेरा हाथ छोड़कर सड़क के किनारे खड़ी भीड़ के अभिवादन का उत्तर दिया और फिर मेरा हाथ थाम लिया. उनमें सहज भद्रता है.
हमारी बातचीत अधिकतर प्रश्नोत्तर की शैली में हुई. राहुल अपनी ओर से बहुत कम कह रहे थे, ज़्यादातर प्रश्न पूछ रहे थे. उनमें जानने की जिज्ञासा है. यात्रा में उनकी संगत समाप्त होने से पहले मेरे यह पूछने पर कि इतनी लंबी यात्रा से उन्हें भारत के बारे में क्या समझ में आया, वे बोले कि ऐसे में हर खोज अपनी खोज ही होती है और मेरी समझ यह बनी है कि मैंने अपना एक नया आत्म खोजा है.
मैंने उनसे यह कहा कि इस समय संविधान पर ही सबसे अधिक हमला है. उसके आमुख में ही एक सशक्त समावेशी विचारधारा है जो भारत के विचार को बहुलतापरक बनाती है. संभवतः समाजवाद के बजाय समता पर, धर्मनिरपेक्षता के बजाय सर्वधर्मसमभाव पर आग्रह होना चाहिये. हिंदुत्व के प्रचारक कभी हिंदू धर्म के संस्थापक ग्रंथों, वेद-उपनिषदों-महाकाव्यांषट् दर्शन आदि का संदर्भ नहीं देते जो सभी प्रश्नवाचक हैं.
राहुल ने कहा कि इस हिंदुत्व में सिर्फ़ जैसा-तैसा वैष्णव तत्व है, पर शैव या शाक्त तत्व तक नहीं. उन्होंने यह भी कहा कि सर्वधर्मसमभाव की धारणा बचाव की मुद्रा लग सकती है. मेरी राय थी कि धर्मनिरपेक्षता को लेकर इतनी दुर्व्याख्या और दुष्प्रचार व्यापक हो गए हैं कि हिंदुओं का एक प्रभावशाली वर्ग अपने को उस कारण पीड़ित मानने लगा है और सवर्ण जातियां इस धर्मांधता की ओर खिंच रही हैं. ‘पुरुष सूक्त’ की बात भी हुई.
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त पर कुछ चर्चा हुई और मैं उसे कुछ विस्तार से बताते हुए जब अंत पर पहुंचा तो राहुल ने यह कहकर कि ‘शायद उसे भी पता न हो’ समापन किया जिससे ज़ाहिर हुआ कि वे इस सूक्त से परिचित हैं.
जिस वैचारिक विकल्प की बात की जा रही है वह स्वतंत्रता-समता-न्याय के इर्दगिर्द विकसित हो सकता है. इस पर गहराई से विचार करना चाहिए कि इस मूल्यत्रयी का शिक्षा, उद्योग, आर्थिकी, सामाजिक कार्य आदि क्षेत्रों में क्या ठोस अर्थ हो सकता है. उत्तर भारत में ख़ासकर शिक्षा के पतन पर, उत्तर भारत में स्त्रियों-बच्चों-अल्पसंख्यकों-दलितों-आदिवासियों के विरुद्ध सबसे अधिक हिंसा-हत्या-बलात्कार होने का मैंने ज़िक्र किया.
ग़रीब, दलित-वंचित, स्त्रियां, बच्चे, अल्पसंख्यक, आदिवासी आदि राजनीतिक कल्पना, ध्यान और प्रयत्न से बाहर, ‘अदृश्य’ कर दिए गए हैं. उन्हें चिंता, प्रयत्न और दृश्यता में बाहर लाना चाहिए.
मेरी इस टिप्पणी पर कि आजकल की राजनीति बहुत अधीरता की राजनीति है जिसमें आप बहुत धीरज से चल रहे हैं, राहुल ने कहा कि उनकी राय में धीरज बेहतर कारगर रणनीति है. आज के डर-भरे माहौल में नागरिक कैसे निडर हों इस पर भी बात हुई. राहुल ने बताया कि उन्होंने गांधी-नेहरू पत्राचार पढ़ा है और उन्हें लगता है कि उस समय भी निर्भय बहुत थोड़े थे. मैंने जोड़ा कि पर इन थोड़ों ने ही साधारण भारतीय को औपनिवेशिक सत्ता के सामने निर्भय बना दिया था.
दोनों तरफ़ भीड़ बढ़ती जा रही थी. मैंने विदा ली तो वे अपने सहयोगियों को यह निर्देश देना न भूले कि मुझे सुरक्षापूर्वक पहुंचाया जाए. इसमें संदेह नहीं कि राहुल इस यात्रा में बिल्कुल निहत्थे चल रहे हैं, उनकी रक्षक के लिए कमांडो तैनात हैं पर वे वेध्य हैं. बड़ी बात यह है कि वे निडर हैं और तेज़ी से देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पैदल चल रहे हैं.
तिरासिवें वर्ष की शुरुआत पर
16 जनवरी 2023 को मेरी आयु के बयासी वर्ष, प्रमाणपत्र के अनुसार, पूरे हो जाएंगे. यह एक लंबा जीवन है और ऐसा नहीं लगता कि मेरी जिजीविषा अब शिथिल हो रही है. यह तो नहीं पता कि कितना समय बचा है, पर जो भी समय है उसमें कुछ न कुछ करते रहने की आदत अभी कमज़ोर नहीं पड़ी है. भौतिक थकान भी बहुत नहीं लगती. जीते रहने में जो एक क़िस्म की अनिवार्य निर्लज्जता होती है, वह भी, जाहिर है, है. यह भ्रम बना हुआ है कि ‘जिस जगह जागा सबेरे उस जगह से बढ़कर’ चलना संभव हो पा रहा है.
सबसे बड़ी बात है कि अनेक मित्रों और सहयोगियों की मदद, गर्माहट, सहारा मिलना कम नहीं हुआ है. बल्कि शायद बढ़ा ही है. मेरे जीवन में जो कुछ सार्थक हुआ वह सिर्फ़ मेरे आत्मविश्वास और आत्मसंशय, एकांतिकता और सहचारिता, यत्किंचत् प्रतिभा और लगातार परिश्रम भर ने संभव नहीं किया है. उसमें दूसरों की उदार भागीदारी रही है.
अपने अनेक मित्रों की गहरी कृतज्ञता से याद करता हूं: उनमें से अधिकांश अब दिवंगत हैं पर उनकी मदद, प्रोत्साहन, उकसावे और लगाव, वफ़ादारी और विचलन भुलाए नहीं जा सकते क्योंकि उन्होंने ही मुझे जीना, हार न मानना, निर्भय रहना सिखाया. उन्होंने ही यह भरोसा दिया कि साहित्य और कलाएं जीवन को उजला, संसक्त, सार्थक और दीर्घजीवी बना सकती हैं. कई बार उजाला मिलता रहा जबकि वह कहां से और क्यों आ रहा है, यह स्पष्ट नहीं होता.
जीवन में अपना मनोबल बनाए रखना कठिन होता है. उसमें हमेशा आपको दूसरों की मदद चाहिए. ऐसे लोग होते होंगे जिनका मनोबल उनकी अपनी निष्ठा से उपजता है. ज़्यादातर का मनोबल तो दूसरों के सहारे आता है. मैं उन्हीं सौभाग्यशालियों में से रहा हूं जिनके मनोबल को कई मित्रों और सहयोगियों ने बनाअ रखने में बहुत मदद की. उनके प्रति कृतज्ञता कभी कम नहीं हुई.
कृतज्ञता तो स्वयं जीवन के प्रति भी है कि उसने इतने लंबे समय तक मुझे सहा, पनाह दी, अवसर दिए, आशा-निराशा के बीच जिलाए रखा, रचने-बचाने की आकांक्षा दी और कुछ क्षमता भी. जानता हूं कि देर-सवेर जीवन अपने को नहीं मुझे समेट लेगा क्योंकि उसकी नज़र में मेरा समय पूरा हुआ. वह क्षण जब आएगा तब आएगा. मैं उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा हूं. जब कहेगा कि चलो तो चल पड़ेंगे. अभी तो उसी ने जिजीविषा को उद्दीप्त कर रखा है. ग़ालिब ने कहा था: ‘एक मर्गे नागहानी और है.’