विश्वविद्यालयों पर विद्यार्थियों का भरोसा कैसे बनाए रखा जा सकता है

 


दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी प्रवेश की अपारदर्शी प्रक्रिया ने छात्रों को ढेरों अनसुलझे सवालों के साथ छोड़ दिया है.‘मेरा दाख़िला नहीं हो पाया, सर’, इस बात से ईमेल शुरू होती है. ‘आगे भविष्य का कुछ भी पता नहीं. समझ नहीं आता क्या करें,क्या नहीं.’

मैं मेल को पढ़ता हूं, बार-बार पढ़ता हूं. मैं इस मायूसी को समझ सकता हूं. वह जिस अंधेरे की चपेट में है उसे महसूस कर सकता हूं. फोन में अन्य छात्रों के भी इसी तरह के फोन मुझे लाचार-सा कर देते हैं. वे सब पीएचडी में दाखिले की बात कर रहे हैं.उनके लिए सबसे बड़ी मायूसी की बात थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में चुने गए 210 विद्यार्थियों में भी वे अपनी जगह नहीं बना सके. जब प्रवेश सूची जारी हुई तो इतनी बड़ी संख्या देख वे हैरान हुए लेकिन इस भीड़ में भी वे जगह नहीं बना पाए यह उनके लिए अधिक निराशा की बात थी.

परिणाम में हमारे नामों के साथ अंकों का उल्लेख क्यों नहीं है? आपने हमें कितने अंक दिए, हम यह क्यों नहीं जान सकते? मेरिट लिस्ट कहां हैं? आखिर दाखिले की शर्त क्या है?

इन सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं है. मैं उनसे कहता हूं कि मैं विभागीय शोध समिति (Departmental Research Committee) में नहीं हूं. पर यह दिलासा नाकाफी है.

वे पूछते हैं, ‘विभाग का कोई नियम तो होगा, कोई निष्पक्ष मानक तो होगा. क्या शोध समिति को विभाग के तथा अध्यापकों के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए? अध्यापक होने के नाते इसके फैसलों की कुछ जिम्मेदारी तो आपकी भी है. आप भोलेपन से यह कैसे कह सकते हैं कि मैं कमेटी में नहीं था इसलिए इसके निर्णयों की मुझे कोई जानकारी नहीं. क्या कमेटी हम अभ्यर्थियों के प्रति जवाबदेह नहीं है?’

‘यह कैसे हो सकता है कि कुछ विद्यार्थियों का साक्षात्कार तो सिर्फ एक अध्यापक ने लिया, कुछ का दो या तीन ने और कुछ चार ने? इसमें किसने किसका मूल्यांकन किया? अगर यही तरीका है तो ग्रेड देते वक्त एकरूपता कैसे बनाए रखी जा सकती है?’ इन सवालों का फिर मेरे पास वही जवाब है कि मैं कमेटी में नहीं था.

‘आप किस कमेटी की बात कर रहे हैं? आप इसे गठित कैसे करते हैं? यह कैसे हो सकता है कि ये तीन, चार लोग ही सब कुछ तय करते हैं और आप सिर्फ बेबसी जाहिर कर सकते हैं?’

मैं उसे नहीं समझा सकता कि यही सवाल हम खुद से भी कर रहे हैं. अधिकारियों से भी इनके जवाब मांग रहे हैं. फिर उसके सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश करता हूं और पूछता हूं, तुम दूसरे विश्वविद्यालयों में आवेदन क्यों नहीं करते?

‘मैं करता हूं, मैंने किया भी था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी सफल विद्यार्थियों की सूची में मेरा नाम नहीं है, पर मुझे इससे कोई शिकायत नहीं. उन्होंने अंक प्रकाशित किए हैं, मेरे दो अंक कम हैं जो ठीक है. कम से कम मुझे यह तो पता है कि उन्होंने मेरा मूल्यांकन कैसे किया और उनके मूल्यांकन से मैं संतुष्ट हूं. साक्षात्कार के वक्त विभाग के सभी अध्यापक मौजूद थे. सबने मुझसे बात की. वहां के साक्षात्कार के बाद मैं काफी खुश था, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने असहजता और अनिश्चितता में साक्षात्कार दिया. मुझे पता ही नहीं था कि मेरा मूल्याकंन कैसे होगा?’

उसके सवाल वाजिब हैं, पर मेरे पास कोई जवाब नहीं है. पर वह अपने सवालों पर टिका हुआ है, ‘मुझे हैरानी यह हुई कि 210 विद्यार्थियों का चयन हुआ है. प्रवेश की विज्ञप्ति के समय तो 98 सीटों की ही सूचना थी. फिर यह संख्या इतनी कैसे बढ़ गई? आप पीएचडी में दाखिले की सीटों को कैसे निर्धारित करते हैं?’

जवाब इस बार भी नहीं है. मैं नियमावली देखता हूं. सीटों में किसी भी तरह के बदलाव की सूचना प्रवेश प्रक्रिया के शुरू होने से कम से कम पंद्रह दिन पहले देना अनिवार्य है. मैं सीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी के पीछे की वजह भी जानना चाहता हूं. मैं विभागाध्यक्ष से पूछता हूं, वे जवाब देना जरूरी नहीं समझते. मेरे जो सहकर्मी कमेटी में है वे भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते. डीन भी सवालों को टाल देते हैं.

हमारे ईमेल और पत्रों का कोई भी जवाब न वे देते हैं और न ही दूसरे उच्चाधिकारी. फिर मैं अपने छात्रों के इन सवालों का कैसे जवाब दूं? मैं उनसे उच्चाधिकारियों के पास जाने को कहता हूं. वे मुस्कुराते हैं, ‘यदि आप हमें कोई जवाब नहीं दे पा रहे जबकि आपने हमें दो साल पढ़ाया है, फिर जो अधिकारी हमें जानते तक नहीं, वे भला हमसे क्यों बात करने लगे?’

एक दूसरे संस्थान की मेरी सहकर्मी फटकारते हुए कहती हैं, ’98 भी बहुत बड़ी संख्या है आप विद्यार्थियों की इतनी बड़ी तादाद को कैसे संभालते हैं?’ मैं जवाब देता हूं, ‘हमारे कॉलेजों में पर्याप्त शिक्षक हैं. वह फिर पूछती है, ‘ठीक है, पर चयन प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका है या नहीं? या आप अपने फैसले उन पर थोप देते हैं? शोध विषय कौन तय करता है? क्या शोध निर्देशक की कोई भूमिका इसमें है?’

वे मानो मुझे याद दिलाते हुए कहती है, ‘आप पीएचडी में भीड़ इकट्ठी नहीं कर सकते.’ अब यह एक जुदा बहस है. हम अध्यापकों को इस पर विचार करने की जरूरत है. पीएचडी का मकसद क्या है? क्यों पीएचडी करना हर एक का जनतांत्रिक हक नहीं हो सकता? यह एक अलग विषय है.

मैं अभी मौजूदा तंत्र के भीतर ही अपने छात्रों के सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं. इस पूरी प्रक्रिया के नियम-कायदे क्या हैं? यह जानने का हक तो उन्हें है ही. लेकिन यह पता करने का कोई जरिया उनके पास नहीं है.

मेरा छात्र मुझसे कहते हैं, ‘हम सिर्फ पारदर्शिता की ही तो बात कर रहे हैं.’ मैं जो आपसे पूछ रहा हूं, जेएनयू से नहीं. बस एक मांग रख रहा हूं.’ मैं उसे बताना चाहता हूं कि अध्यापकों के अधिकांश निर्णय आत्मनिष्ठ ही होते हैं. आप को उन पर यकीन करना ही होता है. सामूहिक निर्णयों में व्यक्तिगत पूर्वाग्रह अधिक बाधा नहीं बन पाते. अंततः साझे निर्णय पर तो यकीन करना ही होता है.

पर यह भरोसा ही टूट चूका है, इसलिए मेरा उससे यह कहना बेमानी है कि वे सामूहिक निर्णय को स्वीकार करे क्योंकि सामूहिकता के नियमों को ध्वस्त होते खुद मैंने देखा है. वह मुझसे बेहतर जानता है.

‘जिन विद्यार्थियों की पहुंच निर्णायकों तक है, उन्हें फायदा हुआ है.’ ‘लेकिन कुछ अच्छे विद्यार्थियों का भी चयन हुआ है.’ अपनी बात खत्म करते हुए वह कहता है, ‘यह तो बस अपवाद है, सर. इससे मेरी बात सच ही साबित होती है. अपने मनमाने निर्णयों को सही ठहराने के लिए थोड़ी बहुत ईमानदारी भी दिखानी ही पड़ती है.’

हम हमेशा असफल विद्यार्थियों से और अधिक तैयारी करने को कहते हैं और बेहतर शोध प्रस्ताव तैयार कर लाने को कहते हैं. इस पर छात्र कहता है कि उसे और दूसरे विद्यार्थियों को पता है कि उन्हें एक अलग तरह की तैयारी करने की जरूरत है. यह मसला शोध प्रस्ताव के अच्छे या बुरे होने का नहीं है!

यह बातचीत जब हो रही थी तब मैं अपने पिता के साथ बैठा हुआ था. पिछले महीने मेरी मां उन्हें अकेला छोड़ गईं. जब फोन आया तब हम बात कर रहे थे कि कैसे एक दीमक ने धीरे-धीरे बिहार की उच्च शिक्षा व्यवस्था को खोखला कर दिया. वे एक कस्बे, सीवान के डीएवी कॉलेज में अध्यापक थे. उन्हें पूरी ईमानदारी से परीक्षाएं लेने के लिए जाना जाता था. पर मेरे पिता के पास अन्य कॉलेजों से उत्तर पुस्तिकाएं मूल्यांकन के लिए आया करती थीं.

यही वह वक्त होता था जब हमारे दरवाजे पर आए दिन दस्तकें होती थीं. हम इन लोगों को तीर्थयात्री कहा करते थे क्योंकि यह समय तीर्थयात्राओं का भी होता था. वे ऐसे लोगों की अर्जियां लाते थे जो मेरे पिता के, भले ही दूर के सही, परिचित थे. अपनी बात मनवाना उन्हें अपना अधिकार लगता था. आखिरकार परीक्षक को तो अंक ही देने होते हैं! इसमें क्या बड़ी बात है?

अब 90 पर कर चुके मेरे पिता अपने सहकर्मियों की बातों को याद करते हुए कहते हैं, ‘नेता तबादला करवा सकते हैं, अफसर ठेका दिलवा सकते हैं. हम अध्यापकों के पास तो परीक्षा के अंक ही हैं, इसमें इतनी बुरी क्या बात है.’ उन सहकर्मियों का तर्क था इस व्यवस्था के लिए दलील देते हुए.

पर इसी के चलते बिहार में डिग्रियों की विश्वसनीयता खत्म हो गई. मैं ऐसे कितने ही बिहारी विद्यार्थियों को जानता हूं जिन्हें इसके चलते बिहार के बाहर अपमानित होना पड़ा है. बिहार के अध्यापकों की विश्वसनीयता भी जाती रही.

क्या मैं दोनों में समानताएं ढूंढ रहा हूं? हम अध्यापकों को हमेशा से न्यायपूर्ण निर्णय करने वाला माना जाता रहा है. हम अब भी ऐसा मान रखते है. पर इस अधिकार और मान की रक्षा के लिए हमारे भीतर यह भरोसा होना चाहिए कि हम अपने फैसलों का बचाव भी कर सकें.

अगर हमारे निर्णय गैर अकादमिक कारकों से प्रेरित होंगे तो हम पर सवाल उठना लाजिमी है. अब अभ्यर्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसी स्थिति में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अध्यापकों और प्रवेश प्रक्रिया पर उनका यकीन बना रहे. वरना यह काम भी किसी चेहरा विहीन राष्ट्रीय जांच संस्था को सौंप दिया जाएगा.

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