कर्णाटक चुनाव नतीजों के अर्थ

 


प्रेम श्रीवास्तव की रिपोर्ट लोग चर्चा कर रहे हैं कि कर्णाटक के चुनावी नतीजों के 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेंगे। इसका उत्तर देना बहुत आसान नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि कोई असर नहीं पड़ेगा। असर तो पड़ेग। सबसे बड़ी बात तो यह कि मुख्य प्रतिपक्षी दल कांग्रेस आत्मविश्वास से भर गई। कई कारणों से उसका आत्मविश्वास कमजोर दिख रहा था। यदि किसी भी तरह कर्णाटक में भाजपा को जोड़तोड़ की सरकार बनाने में भी सफलता मिल गई होती, यानी कांग्रेस को सत्ता में आने से रोक लिया गया होता,तो भाजपा का गुमान कई गुना बढ़ गया होता। लेकिन जनता ने कांग्रेस को शानदार बहुमत देकर भाजपा को एक सबक देने की कोशिश की है।

लेकिन कोई यह नहीं सोचे कि भाजपा वहां कमजोर हुई है। नहीं। अपने वोट शेयरिंग में वह लगभग वहीं है, जहाँ 2018 के चुनाव में थी।  बात बढ़ाने से पहले हमें 2018 और 2023 के चुनावों का वोट शेयरिंग चार्ट देख लेना चाहिए। -

2018                                                   
भाजपा - 36 .22 %        104 सीटें               
कांग्रेस -  38 . 04 %        80                      
जेडी एस- 18 .36 %         37                     
अन्य --       5 .57 %         03

2023
भाजपा  36 %     65 सीटें
कांग्रेस   42 .9 %  135 सीटें
जेडीएस  13 .3 %  19  सीटें
अन्य        5 .85  %  04 सीटें

भाजपा को 2018 के मुकाबले केवल ०.2 %  यानी मोटे तौर पर नगण्य वोट का नुकसान हुआ। कांग्रेस को करीब 4 .9 % वोट का इज़ाफ़ा हुआ।

यह वोट क्या भाजपा  से आया ?

जवाब होगा नहीं। यह वोट जेडीएस से कट कर आया। जेडीएस की सीटें असेम्बली में 37 से घट कर 19 रह गई। उसका वोट शेयर 18 . 36 से घट कर 13 .3 फीसद रह गया। अन्य का वोट 0 .3 % बढ़ा। भाजपा का 0 .2 फीसद और जेडीएस से 0 .1 फीसद यानी कुल 0 .3  फीसद वोट अन्य ने हासिल किया। सीटों के हिसाब से वह यानि अन्य, सदन में तीन की जगह चार हो गए।  4 . 9 % फीसद की बढ़ोत्तरी से कांग्रेस ने अपनी सीटें 80 से बढ़ा कर 135 कर लिया।

कर्नाटक चुनाव नतीजों ने स्पष्ट सन्देश दिया है कि भाजपा के प्राण -आधार दरअसल क्षेत्रीय पार्टियां हैं। कर्णाटक में कांग्रेस का उदय जेडीएस के पतन के साथ जुड़ा है, न कि भाजपा के पतन के साथ। उत्तर भारत की राजनीति में जब तक क्षेत्रीय पार्टियां बनी रहेंगी, भाजपा बनी रहेगी। कर्णाटक में मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा जेडीएस के साथ था। इस बार वह वहां से छिटक कर कांग्रेस के पास गई, क्योंकि वहाँ भाजपा को पराजित करना था। उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस के परंपरागत वोट समाजवादी पार्टी, बहुजनसमाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू जैसी पार्टियों के पास चले गए हैं। भाजपा ने कांग्रेस के अपर कास्ट और राजद, सपा, बसपा ,जेडीयू के अतिपिछड़ा वोट पर स्वयं को केंद्रित किया। सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित कर उसे अपने उग्र हिंदुत्व के नारे के इर्द-गिर्द इकठ्ठा किया। नतीजा यह निकला कि सामाजिक न्याय का परचम थामे जातपात, कुनबावाद और भ्रष्टाचार के कीचड में उलझी लोकदली पार्टियां हासिये पर चली गईं। यदि बिहार -यूपी में मुसलमान एकबार फिर कांग्रेस की तरफ लौटते हैं, तो कांग्रेस के पारम्परिक दलित और अपर कास्ट वोट भी उसकी तरफ लौट सकते हैं। क्योंकि भाजपा को वोट देकर वे खुश नहीं हैं।

कांग्रेस की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपना राष्ट्रीय समावेशी चरित्र विकसित करे। गरीबों और कमजोर वर्गों को संरक्षण सुनिश्चित करे। लेकिन इन सब के पहले वह बिहार और यूपी में राजद,जेडीयू और सपा जैसी पार्टियों के बदनाम और दागदार नेताओं से  स्वयं को अलग करे। कांग्रेस को इंदिरा गांधी के 1980 मॉडल को अपनाना होगा, न कि 2004 के सोनिया गांधी मॉडल को। गलत लोगों की भीड़ लेकर चलने की अपेक्षा अकेले चलना उसके लिए अधिक लाभप्रद होगा।
भाजपा तब तक बनी रहेगी जब तक कांग्रेस मजबूत नहीं होगी। कांग्रेस को मजबूत करने केलिए उसे चाहिए कि बिछुड़े कॉंग्रेसियों ( ममता, पवार, जगमोहन आदि ) को एक छतरी के नीचे लावे और संभव हो तो समाजवादियों को साथ करते हुए 1934 की तरह कांग्रेस  सोशलिस्ट पार्टी ( सीएसपी ) पुनर्गठित करे। यह 1977 के जनता पार्टी से बेहतर विकल्प होगा,क्योंकि इसमें संघ -जनसंघ और चरण सिंह के लोकदल जैसे तत्व नहीं होंगे।  जब इतने घटक इकठ्ठा हो जाएंगे तो स्वतः  परिवारवाद ख़त्म हो जाएगा और संगठन में आतंरिक लोकतंत्र भी बहाल हो जाएगा, जिसका आज उस दल में नामोनिशान नहीं है। लेकिन इसके लिए कांग्रेस को अपना संकल्प मजबूत करना होगा।

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