लोकसभा चुनाव 1967: सिंडिकेट का सूपड़ा साफ कर कुर्सी पर काबिज होने में कामयाब रहीं इंदिरा
 

1967 लोकसभा चुनाव और इंदिरा गांधी। - फोटो : हिंदी दैनिक आज का मतदाता 

 


27 मई 1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने और इंदिरा गांधी ने उनके मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री का पदभार संभाला। शास्त्री की मृत्यु के बाद 1966 में इंदिरा देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं और 1977 तक इस पद पर रहीं। 52 साल पहले भारत के चौथे लोकसभा चुनाव के वक्त इंदिरा गांधी पचास साल की होने वाली थीं। यह ऐसा वक्त था जब पूरा सिंडिकेट इंदिरा के खिलाफ था। लोहिया कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने का आवाह्न कर रहे थे और इंदिरा चुनावी मैदान में वीरांगना की तरह जुटी हुई थीं। उस वक्त इंदिरा के खिलाफ वरिष्ठ नेताओं का एक गुट सक्रिय था। इसे ही सिंडिकेट कहा जाता था। 


 रुपए के अवमूल्यन के फैसले को लेकर सिंडिकेट इंदिरा को खुलेआम धमका रहा था। 6 जून 1966 को किए गए रुपए के अवमूल्यन ने इंदिरा को सबकी नजरों में गिरा दिया था। कांग्रेस कार्यसमिति ने भी इसके विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित किया था। इंदिरा के सामने जनता का भरोसा फिर से पुख्ता करने की चुनौती थी। उनके वामपंथी रुझान वाले मित्र उन्हें फौरन समाजवादी-राष्ट्रवादी नीतियों को फिर से अपनाने की सलाह दे रहे थे ताकि जनता के भरोसे को फिर से पुख्ता किया जा सके और अमेरिका की पिट्टू बनने के आरोप का मुकाबला किया जा सके। पार्टी के भीतर से लेकर बाहर तक राजनीतिक माहौल ही इंदिरा के खिलाफ था। इसे भी पढ़ें- 67 साल पहले हुआ था आजाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव, 53 पार्टियां उतरी थीं मैदान में

गोरक्षक आंदोलन उग्र हो रहा था और इंदिरा के लिए हल्ला बोल की नौबत आ गई थी

गौरक्षक आंदोलन उग्र हो रहा था। इंदिरा गांधी के लिए राजनीतिक मोर्च पर हल्ला बोल की नौबत आ गई थी। अमेरिका से खाद्यान सहायता को अपमानजनक माना जा रहा था। रुपए के अमवूल्यन ने राजनीति की आग में घी डालकर उसे भड़का दिया था। 1966 में ही त्रिशूल लहराते हुए हजारों नागा साधुओं के साथ हिंदू समूहों ने गोहत्या पर तत्काल रोक लगवाने के लिए संसद में घुसने की कोशिश की थी। पुलिस ने बेकाबू भीड़ पर गोलियां चला दी और कुछ प्रदर्शनकारी मारे गए। इससे हालात इतने बिगड़ गए कि सेना को सड़कों पर उतारना पड़ा। 1947 को मिली आजादी के बाद यह पहला मौका था जब सेना सड़क पर उतरी थी। इंदिरा भी पिता जवाहरलाल नेहरू की ही तरह जिद्दी थी। पिता की राह पर चलते हुए बेटी ने भी गोरक्षकों के सामने हथियार नहीं डाले और बेरहमी से गोरक्षा आंदोलन को कुचल दिया। 

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राजनीतिक विरोधियों को कुचलने में माहिर इंदिरा ने मौके का फायदा उठाकर गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा से इस्तीफा ले लिया। वह उन्हें पहले से ही नापसंद करती थी और ऊपर से मौका भी अच्छा था। गुलजारी लाल नंदा धर्मनिष्ठ हिंदू और गोरक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे।
कामराज ने कर दी थी बगावत, प्रचार के दौरान टूट गई थी इंदिरा की नाक
रुपए के अवमूल्यन के फैसले में विश्वास में नहीं लिए जाने से कामराज आग-बबूला थे और दोनों के रास्ते जुदा हो गए थे। कामराज किसी जमाने में नेहरू के करीबी मित्र थे। नेहरू भी उनसे सलाह लिया करते थे। इन सब चुनौतियों के बीच इंदिरा चौथे लोकसभा चुनाव के लिए धुआंधार चुनाव प्रचार कर रही थीं। भुवनेश्वर की एक रैली में भीड़ की तरफ से मारे गए पत्थर की वजह से इंदिरा की नाक की हड्डी टूट गई थी। इन सब चुनौतियों के बावजूद इंदिरा ने 1967 का चौथा लोकसभा चुनाव जीता और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुईं। 
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सिंडिकेट का सूपड़ा साफ और स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस के आधिपत्य को चुनौती
सिंडिकेट का सूपड़ा साफ हो गया था और कामराज को द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी के 28 साल के युवा नेता से मात खानी पड़ी थी। एस. के पाटिल को बंबई में जॉर्ज फर्नांडीज ने पटखनी दी थी। इंदिरा गांधी रायबरेली से भारी बहुमत से जीतीं। कांग्रेस को 283 सीटें मिली और पार्टी मामूली बहुमत के साथ सदन में जीतकर आई। 13 मार्च 1967 को लगातार दूसरी बार इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। कांग्रेस को पहले, दूसरे और तीसरे लोकसभा चुनाव के मुकाबले झटका लगा था। यह पहली बार था जब स्वतंत्र भारत में कांग्रेस के आधिपत्य को गंभीर चुनौती मिली थी। इसी साल लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव भी हुए और केरल, पंजाब, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमर टूट गई।


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