पहले आम चुनाव में नेहरू परिवार की बहन पं. विजयलक्ष्मी पंडित को जिताकर संसद में भेजने वाली लखनऊ संसदीय सीट की प्राथमिकता हमेशा बड़े और असरदार चेहरे रहे हैं। यहां न तो कभी पैसे की ताकत किसी को संसद में भेज पाई और न जातीय गुणाभाग से कोई नतीजा निकल पाया। यहां के मतदाताओं ने उन्हेें सांसद चुना जो संसद में लखनऊ की साख बढ़ा सकें। शहर की आबोहवा में बौद्धिक जागरूकता भरी है। शायद यही वजह रही कि आजादी के पहले कांग्रेस के तीन राष्ट्रीय अधिवेशन का स्थल और जवाहर लाल नेहरू व महात्मा गांधी की पहली मुलाकात का चश्मदीद गवाह बना लखनऊ लंबे समय तक कांग्रेसी धारा के साथ कदमताल करते हुए चला। पर, जब कांग्रेस ने उस जमाने के एक बड़े पूंजीपति शराब निर्माता वेदरत्न मोहन (वीआर मोहन) को लखनऊ से संसद भेजने का तानाबाना बुना तो लखनऊ ने उसे झटका देते हुए साफतौर पर बता दिया कि साख से कोई समझौता स्वीकार नहीं है। तब लखनऊ ने काॅफी हाउस में बैठने वाले कुछ साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और वरिष्ठ पत्रकारों की तरफ से मैदान में उतारे गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश व वरिष्ठ बैरिस्टर आनंद नारायण मुल्ला को जिताकर संसद भेज दिया।
वर्ष 1991 में इस सीट पर अटल की जीत के साथ शुरू हुआ भाजपा की जीत का सिलसिला अब तक कायम है। इस बार भी भाजपा की जीत पर किसी को संशय नहीं है। लोगों की नजर बस इस पर है कि पिछली बार 2.72 लाख वोट से जीते राजनाथ की जीत का अंतर अबकी कितना रहेगा... उनको टक्कर कौन देगा?