देश विकास कर रहा है, तो लोग आत्महत्या करने पर मजबूर क्यों हो रहे हैं? गिरती जीडीपी का बढ़ती आत्महत्याओं से क्या संबंध-प्रवीण कुमार


गिरती अर्थव्यवस्थाबढ़ती किसान आत्महत्याएं 


किसी भी देश में आत्महत्या की दर (Suicide rate) उसके सामाजिक स्वास्थ्य का संकेतक (Indicator of social health) होती है। हमारे देश में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau -एनसीआरबी) इसके विश्वसनीय आंकड़े उजागर करता है। लेकिन किसान आत्महत्याओं की बढ़ती खबरों (Increasing news of farmer suicides) के बीच मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दबाव में तीन साल बाद एनसीआरबी ने ये आंकड़े सार्वजनिक किए हैं और इसने समूचे देश को झकझोरते हुए मोदी सरकार के विकास के दावों और उसकी नीतियों की पोल खोलकर रख दी है। एक सवाल स्पष्ट रूप से पूछा जा सकता है कि यदि देश विकास कर रहा हैतो लोग आत्महत्या करने पर मजबूर क्यों हो रहे हैंक्या गिरती जीडीपी का बढ़ती आत्महत्याओं से कोई संबंध नहीं है?


Today, 15-16 people are committing suicide in the country.


एनसीआरबी के अनुसार पिछले वर्ष 2019 में 1.39 लाख से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की है और वर्ष 2018 की तुलना में इसमें 3.42% की वृद्धि हुई है। वर्ष 2017 में जहां प्रति लाख आबादी में 9.9 लोग आत्महत्या कर रहे थे, वहीं आज 10.4 लोग आत्महत्या कर रहे है। मोदी-काल की यह सर्वाधिक दर है और देश में आज हर घंटे 15-16 लोग आत्महत्या कर रहे हैं। इनमें खेती-किसानी के काम में लगे ग्रामीण भी शामिल हैं, तो दिहाड़ी करने वाले मजदूर भी हैं। इनमें छात्र और युवा भी हैं, तो बेरोजगार और स्वरोजगार में लगे लोग भी हैं।


आत्महत्या करने वालों में 70% पुरुष हैं, तो 30% महिलाएं भी है। हमारे समाज का कोई ऐसा तबका नहीं है, जो आत्महत्या के इस दंश से बचा हो। यही सामाजिक संकट है।


इस आलेख का मुख्य फोकस खेती-किसानी में लगे किसानों और खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याओं पर है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष कुल 42480 खेतिहरों और दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की हैं, जो देश में होने वाली कुल आत्महत्याओं का 30% से ज्यादा है और वर्ष 2018 की तुलना में इसमें 6% की वृद्धि हुई है। इनमें 10357 खेतिहर (किसान और खेत मजदूर दोनों) थे और उनकी आत्महत्याओं में 7.4% की वृद्धि पूर्व वर्ष की तुलना में हुई है। इसी प्रकार, दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याओं में 8% की वृद्धि हुई है। जिस प्रकार गांवों से शहरों की ओर विस्थापन की प्रक्रिया को सुनियोजित ढंग से बढ़ावा दिया गया है, यह मानने के पर्याप्त कारण है कि आत्महत्या करने वाले इन दिहाड़ी मजदूरों में से अधिकांश निकट अतीत के किसान और खेत मजदूर ही थे और कुल होने वाली आत्महत्याओं में 23% आत्महत्याएं इन्हीं वंचितों के नाम दर्ज की गई है।


इन आंकड़ों का विश्लेषण यह भी बताता है कि देश में हर घंटे होने वाली औसतन 15-16 आत्महयाओं में एक से अधिक किसान समुदाय से और लगभग 4 दिहाड़ी मजदूरों में से हो रही है। इस प्रकार हर घंटे कम-से-कम 5 खेतिहर और दिहाड़ी मजदूरों को यह व्यवस्था निगल रही है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का लगभग 93% असंगठित क्षेत्र से आता है। दिहाड़ी मजदूरों का इतनी भारी तादाद में आत्महत्या करना दिखाता है कि यह क्षेत्र आज सबसे ज्यादा संकट के दौर से गुजर रहा है, जहां उन्हें रोजगार और मजदूरी की कोई सुरक्षा तक हासिल नहीं है और आर्थिक संकट के बोझ और हताशा में फंसकर वे अपनी जान दे रहे है


किसान आत्महत्याओं के आंकड़े और उसकी दर कृषि संकट की गहराई का प्रतीक होते हैं। देश में खेती-किसानी में लगे 10357 खेतिहरों की आत्महत्या का अर्थ है, प्रतिदिन औसतन 28 से ज्यादा किसान और खेत मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं। किसान आत्महत्याओं में पांच शीर्षस्थ राज्य हैं : महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश-तेलंगाना, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़; जहां कुल किसान आत्महत्याओं का आधे से ज्यादा कई वर्षों से लगातार दर्ज हो रहा है। किसानों की कुल होने वाली आत्महत्याओं का 30.2% महाराष्ट्र में, 19.4% कर्नाटक में, 14.8% आंध्रप्रदेश-तेलंगाना (संयुक्त) में, 5.3% मध्यप्रदेश में, 4.9% छत्तीसगढ़ में और 2.9% पंजाब में हुई हैं।


लेकिन ये प्रतिशत आंकड़े तस्वीर का एक पहलू ही है, क्योंकि विभिन्न राज्यों का औद्योगीकरण, वहां की जनता की कृषि पर निर्भरता और कृषि उन्नयन की स्थिति अलग-अलग है। इसे प्रति लाख किसान परिवारों पर आत्महत्या की दर (Suicide rate per lakh farmer families) से समझना ज्यादा बेहतर होगा।


कृषि मंत्रालय की कृषि सांख्यिकी 2015 की तालिका 15.2 (Table 15.2 of Agricultural Statistics 2015 of Ministry of Agriculture) के अनुसार इन राज्यों में वर्ष 2011 में खेतिहर परिवारों की जो संख्या दर्शाई गई है, उसके आधार पर संबंधित राज्य में प्रति लाख खेतिहर परिवारों में आत्महत्या की दर की गणना की गई है, (तालिका देखें)। इस गणना से स्पष्ट है कि पूरे देश में प्रति लाख खेतिहर परिवारों पर औसतन 7.49 किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वहीं पंजाब में यह दर सर्वाधिक 28.7, महाराष्ट्र में 28.47, कर्नाटक में 25.44, छत्तीसगढ़ में 13.32 और मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय औसत से कम 6.1 है।


इससे मोटे तौर पर निम्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं :



  1. पंजाब, जो कृषि के मामले में उन्नत राज्यों में गिना जाता है और जिसे हरित क्रांति का सबसे ज्यादा फायदा मिला है, आज सबसे ज्यादा कृषि संकट के दौर से गुजर रहा है, इसके बावजूद कि संख्यात्मक दृष्टि से किसान आत्महत्या वाले राज्यों में उसका स्थान छठवां है।

  2. हालांकि किसान आत्महत्याओं में संख्या की दृष्टि से छत्तीसगढ़ का स्थान पांचवां है, लेकिन वास्तविक किसान आत्महत्या की दर के आधार पर वह चौथे स्थान पर है और मध्यप्रदेश पांचवें स्थान पर। छत्तीसगढ़ में कृषि संकट मध्यप्रदेश से बहुत ज्यादा, दुगुने से अधिक है।

  3. आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से थोड़ी ज्यादा है, लेकिन संख्या की दृष्टि से वह देश में तीसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय औसत से आत्महत्या दर कम होने के बावजूद मध्यप्रदेश किसान आत्महत्याओं की सूची में चौथे स्थान पर खड़ा है। देश में होने वाली कुल किसान आत्महत्याओं में से आधे से ज्यादा के आंकड़ों को बनाने में इन दोनों राज्यों की मौजूदगी है। यह इन प्रदेशों में किसानों की अत्यधिक दयनीय हालत का प्रतीक है।

    पिछले ढाई दशकों से उदारीकरण की जिन नीतियों को हमारे देश की सरकारें किसान समुदाय पर थोप रही हैं, उसका कुल नतीजा यह है कि खेती-किसानी घाटे का सौदा हो गई है, खेतिहर परिवार कर्ज़ के बोझ में डूबे हुए हैं और अपनी इज्जत बचाने के लिए उन्हें आत्महत्या के सिवाय और कोई रास्ता नजर नहीं आता। हाल ही में किसानों को सरकारी जकड़ से मुक्त करने के नाम पर जो कृषि विरोधी अध्यादेश जारी किए गए हैं, बिजली क्षेत्र के निजीकरण (Privatization of power sector) के लिए जो संशोधन प्रस्तावित किये गए हैं, आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे के लिए जो पर्यावरण आकलन का जो मसौदा पेश किया गया है और मुक्त व्यापार का जो रास्ता अपनाया जा रहा है, वे समूचे कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेटी दिशा में धकेलने का काम करेंगे, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से और जनता को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था से वंचित करेंगे। आने वाले दिनों में यह नीतियां खेतिहरों को और ज्यादा बर्बादी और आत्महत्या की ओर धकेलने का काम करेगी।


    यह भी देखने की बात है कि एनसीआरबी के आंकड़े आधे-अधूरे आंकड़े ही है और इन आंकड़ों में वे लोग, जो खेती-किसानी के काम से प्रत्यक्ष रूप से तो संलग्न हैं, लेकिन जिनके पास कृषि भूमि के पट्टे नहीं है या वे आदिवासी, जो वन भूमि पर पीढ़ियों से काबिज होकर खेती कर रहे हैं, शामिल नहीं है। इससे स्पष्ट है कि कृषि संकट की भयावहता उससे ज्यादा है, जितनी आंकड़ों से दिखती है।


     


    एनसीआरबी के आंकड़े वर्ष 2019 के हैं, जब कोरोना की महामारी की मार दुनिया पर नहीं थी। कोरोना महामारी से निपटने में जो असफलता सरकार को मिली है और अर्थव्यवस्था रसातल में गई है और ताजे जीडीपी के आंकड़े जिस बर्बादी की कहानी कह रहे हैं, उसकी मार किसान समुदाय और प्रवासी मजदूरों पर जिस तरह पड़ी है, उसका समग्र आंकलन होने में काफी समय लगेगा। लेकिन यह तय है कि वर्ष 2020 के किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों में भारी उछाल आने वाला है। कोरोना-काल में खेतिहरों की बर्बादी और कृषि संकट की भयावह दास्तां अभी लिखी जानी है।


    विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या की दर में श्रीलंका 29वें, भूटान 57वें, चीन 69वें, नेपाल 81वें, म्यांमार 94वें, बांग्लादेश 120वें और पाकिस्तान 169वें पायदान पर हैं। लेकिन भारत की स्थिति विश्व समुदाय में 21वें स्थान पर है। पड़ोसी देशों की तुलना में तो पहले से ही खराब है। आत्महत्याओं के मामले में संघ-भाजपा राज में शायद हम विश्व-गुरु बनने की ओर बढ़ रहे हैं!


     





























































    राज्यखेतिहर परिवारों की संख्या (2011)किसान आत्महत्याएं (2019)प्रति लाख किसान परिवारों पर आत्महत्या दरकुल किसान आत्महत्याओं में %  
    1.महाराष्ट्र13699000390028.4730.2
    2. कर्नाटक7832200199225.4419.4
    3.आंध्रप्रदेश1317510010297.8110.0
    4.मध्यप्रदेश88724005416.105.3
    5.छत्तीसगढ़374650049913.324.9
    6. पंजाब105260030228.72.9
    भारत1383485000103577.49 



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