देश के नामचीन डॉक्यूमेंट्री फिल्मकारों में से एक आनंद पटवर्धन ने 90 के दशक में शुरू हुए राम मंदिर आंदोलन को अपनी डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ में दर्ज किया है. बाबरी विध्वंस मामले में विशेष सीबीआई अदालत के फ़ैसले के मद्देनज़र उनसे बातचीत.
आनंद पटवर्धन देश के डॉक्यूमेंट्री फिल्मकारों में एक जाना-माना नाम हैं. कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड्स जीत चुके पटवर्धन सामाजिक, राजनीतिक और मानवाधिकार संबंधी विषयों पर फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं.
1978 से फिल्में बनाते आ रहे पटवर्धन की प्रमुख फिल्मों में ‘क्रांति की तरंगें, ज़मीर के बंदी, राम के नाम,फादर, सन एंड होली वॉर और जय भीम कॉमरेड जैसे नाम शामिल हैं.
90 के दशक में शुरू हुए राम मंदिर आंदोलन को उन्होंने अपनी डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम‘ में दर्ज किया है. राम मंदिर आंदोलन को कवर करने के लिए पटवर्धन ने तब काफी समय अयोध्या में बिताया था.
75 मिनट की इस फिल्म में बाबरी मस्जिद के स्थल पर राम मंदिर बनाने के लिए छेड़ी गई मुहिम और इससे भड़की हिंसा, जिसकी परिणीति बाबरी विध्वंस के तौर पर हुई, को दर्शाया गया है.
1992 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की बेस्ट इन्वेस्टीगेटिव फिल्म श्रेणी में तो अवॉर्ड मिला ही था, इसे दो अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी मिले थे.
बीते बुधवार को विशेष सीबीआई अदालत ने 28 साल पुराने बाबरी विध्वंस मामले में फैसला सुनाते हुए सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया.
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना पूर्व नियोजित नहीं थी. हालांकि डॉक्यूमेंट्री फिल्माने के लिए अयोध्या में रहे पटवर्धन इससे इत्तेफाक नहीं रखते. अदालत के हालिया फैसले को लेकर विभिन्न पहलुओं पर आनंद पटवर्धन से विशाल जायसवाल की बातचीत.
बाबरी मस्जिद विध्वंस को लेकर विशेष सीबीआई अदालत के फैसले को किस तरह देखते हैं?
‘राम के नाम’ डॉक्यूमेंट्री देखने पर साफ पता चल जाता है कि यह सब एक साजिश थी. रामजन्मभूमि के पुजारी महंत लालदास ही बता रहे थे कि ये लोग जो कर रहे वह सिर्फ पैसा पाने और सत्ता में आने के लिए कर रहे हैं, इन्हें तो धर्म से भी कोई मतलब नहीं है.
डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम का पोस्टर. (फोटो साभार: फेसबुक/आनंद पटवर्धन)
उन्होंने यहां तक बताया कि यहां पर विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के लोग कभी पूजा करने के लिए भी नहीं आए. यह केवल एक राजनीतिक मामला है. लिब्रहान आयोग के सामने ‘राम के नाम’ एक सबूत के तौर पर रखी गई थी.
मैंने अयोध्या में देखा कि 20 से अधिक ऐसे मंदिर थे जो कहते थे कि राम यहीं जन्मे हैं. उसका उद्देश्य यही था कि अगर आप वहां राम के जन्म को साबित कर देंगे तो वहां पर चढ़ावा ज्यादा आएगा, ज्यादा दान मिलेगा. मगर विहिप ने एक ही जगह को राम जन्मभूमि माना क्योंकि वहां मस्जिद थी.
बाबरी मस्जिद गिरने से पहले मैंने ‘राम के नाम’ बनाई थी. 1990 में जब मैं वहां गया था तब भी कारसेवकों ने मस्जिद गिराने की कोशिश की थी, लेकिन थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ होने के बाद मस्जिद बच गई थी.
उस दौरान प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी, जो कारसेवकों को रोकने की कोशिश कर रही थी, लेकिन दूसरी तरफ कारसेवकों की ओर से पूर्व पुलिस प्रमुख थे, जो विहिप के सदस्य बन गए थे.
पुलिस उनकी मदद करने में ही लगी थी. उस दिन मस्जिद बच गई थी मगर कुछ लोग मारे भी गए थे. 2014 में कोबरा पोस्ट ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था, जिसमें उन्होंने बाबरी को गिराने वाले कई आरोपियों के गुप्त कैमरा से इंटरव्यू किए थे.
उस वीडियो में कार्यकर्ता खुलकर बोल रहे थे कि उन्हें पता था कि अगर उनके कुछ लोग मारे जाएंगे तो और भी अच्छा होगा.
उनका मानना था कि अगर पुलिस की गोलीबारी में कुछ जानें गईं, तो उसका फायदा मिलेगा और 1990 में यही हुआ- उन्होंने अपने ही कारसेवकों को जान-बूझकर मरवाया.
कहा जाता है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हमारा समाज अधिक सांप्रदायिक हुआ है, आपकी क्या राय है?
मैंने जब ‘राम के नाम’ बनाई थी, तब कम से कम गरीब, शोषित और वंचित तबका नहीं चाहता था कि कोई गड़बड़ हो और उसे मंदिर से कोई लेना-देना नहीं था. हम जब अयोध्या गए थे तब लोग कहते थे कि हम तो एक-दूसरे के साथ रहते हैं, एक-दूसरे की शादी में जाते हैं, सभी चीजें एक साथ करते हैं. हमारे बीच कोई दंगा-फसाद नहीं होता है लेकिन बाहर के लोग आकर यह सब करवा रहे हैं.
उस समय ऐसी भावना थी कि बाहर के लोग आकर माहौल खराब कर रहे हैं. हालांकि आज परिस्थिति बदल चुकी है.
मैं कहूंगा कि सांप्रदायिक होने से ज्यादा बहुलता का नशा चढ़ गया है. अभी सांप्रदायिक दंगे नहीं होते हैं बल्कि पोगरॉम [Pogrom-किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाकर होने वाला कत्लेआम] होते हैं. कुछ होता है, तो मुसलमान ज्यादा मारे जाते हैं.
आप चाहे 2002 को देख लीजिए, 1984 देख लीजिए या फिर इस साल जो दिल्ली में हुआ वह देख लीजिए. अल्पसंख्यक ज्यादा मारे गए हैं और मारा किसने है वह हम जानते हैं.
‘राम के नाम’ बनाने के दौरान हमने देखा था कि वहां बहुत से अखाड़े थे. वहां कुश्ती वगैरह के साथ हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जाती थी. उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि ये अखाड़े बहुत पहले से हैं क्योंकि वहां बाबरी मस्जिद को लेकर हिंदू-मुस्लिम का झगड़ा होता रहता था. यह सरासर झूठ है.
(साभार: डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’/वीडियोग्रैब)
हालांकि, ये झगड़े शैव और वैष्ण संप्रदाय में होते थे. शैव और वैष्णव में हमेशा ठनी रहा करती थी. आज का हिंदुत्व बनाने में उन्होंने इस मामले में सफलता हासिल की है कि शैव और वैष्णव को एक किया है और उनका दुश्मन सिर्फ मुसलमान है.
आज लोगों में यही भावना बन गई है कि मुसलमानों ने जो हमारे साथ 500 साल पहले किया हम उसका बदला लेंगे. मेरा मानना है कि गांवों में आज भी यह उतनी गहराई में नहीं पहुंचा है लेकिन शहरों और मध्यम वर्गीय लोगों में यह बहुत गहराई तक बस गया है.
विशेष सीबीआई अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए आरोपी 32 नेता नहीं बल्कि उपद्रवी तत्व जिम्मेदार हैं. आपका क्या कहना है?
अगर अदालत कह रही है कि यह काम असामाजिक तत्वों ने किया तो इसका मतलब है कि पूरा संघ परिवार असामाजिक हैं. इन्होंने हजार बार बयान दिया है कि मंदिर वहीं बनाएंगे. इस फैसले का यह मतलब है कि हमारे देश में कानून का शासन खत्म हो चुका है. हम हिंदू राष्ट्र बन चुके हैं. जो सत्ता में हैं वे समझ रहे हैं कि हम जो करेंगे सब चलेगा.
संघ परिवार के पूर्व नियोजन की शुरुआत पुरानी है. 1990 में ‘राम के नाम’ बनाते वक़्त हमने उन महंत का इंटरव्यू लिया था, जिन्होंने ख़ुद अपने हाथ से 1949 में एक अंधेरी रात में मस्जिद में घुसकर राम मूर्तियां रखी थीं. अयोध्या के जिलाधिकारी ने मूर्ति हटाने से इनकार किया और बाद में जाकर संघ के सदस्य बन गए.
इसके बाद विहिप ने ‘भये प्रकट कृपाला नाम’ से एक वीडियो भी बनवाया था, जिसमें एक चार साल का बच्चा भगवान राम की एक्टिंग करके मस्जिद में अचानक प्रकट होता है. इसे ‘पूर्व नियोजन’ नहीं तो क्या कहेंगे?
दिसंबर 1992 में मस्जिद गिराने का घटनाक्रम करीब नौ घंटे तक चला. पूरी घटना कैमरे में कैद हुई है. ये सभी (आरोपी नेता) वहां मौजूद थे. आप तस्वीरें देखिए कि वे कैसे हंस रहे हैं.
(साभार: डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’/वीडियोग्रैब)
1989 में विहिप ने राजीव गांधी को धोखा दिया था और कहा था कि वे केवल शिलान्यास करना चाहते थे जिसकी इजाजत राजीव गांधी ने दी थी. 6 दिसंबर के लिए इन्होंने कहा कि वहां वे केवल जाएंगे और कुछ तोड़फोड़ नहीं करेंगे.
ऐसा तो हो ही नहीं सकता है कि इनके लोग नियंत्रण में नहीं हैं, आरएसएस से ज्यादा हमारे देश में (कार्यकर्ताओं पर) नियंत्रण रखने वाला कोई संगठन नहीं है.
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की बात कहता है, आज के समाज में इसे कहां पाते हैं?
मैंने जो रिसर्च किया था उसके अनुसार 1857 में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच एक समझौता हुआ था जिसके अनुसार उस परिसर में मुस्लिम नमाज अदा कर सकते थे और हिंदू पूजा कर सकते थे. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इसका जिक्र है.
यह समझौता हिंदुओं की ओर से बाबा रामचरण दास और मुस्लिमों की ओर से उस समय के एक रईस मुस्लिम अच्छन मियां ने कराया था.
1857 का मतलब है कि आजादी की पहली लड़ाई जब हिंदू और मुसलमान दोनों अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहे थे. अंग्रेज जब इस लड़ाई को जीत गए, तब उन्होंने बाबा रामचरण दास और अच्छन मियां दोनों को फांसी दे दी.
वही काम हम आज कर रहे हैं कि जो लोग धर्मनिरपेक्ष हैं, हिंदू-मुस्लिम एकता और नागरिक अधिकार के लिए लड़ रहे हैं, उन्हें जेल में डाला जा रहा है जबकि जो लोग इस देश के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने में लगे हैं, अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित कर रहे वे आज सत्ता में हैं.
1990 में एक नारा चलता था ‘कण-कण में व्यापे हैं राम,’ यानी राम किसी एक ईंट या एक मंदिर में नहीं, हर चीज़ में हैं. अब इन्होंने उसकी पूरी भावना बदल डाली है.
बाबरी विध्वंस के बाद जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार सत्ता में आई तब उसने पुजारी लालदास की सुरक्षा हटा दी और फिर उनकी हत्या हो गई. गांधी जी की हत्या हुई और ऐसे ही धर्मनिरपेक्ष देश के लिए लड़ने वाले कई और लोग मारे गए.
आप इन हत्यारों की तुलना किसी भी धार्मिक कट्टर समूह से कर सकते हैं लेकिन मैं इन्हें आतंकी ही कहूंगा.
क्या लगता है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले को आगे ले जाया जाना चाहिए? क्या पीड़ित पक्ष न्याय की उम्मीद कर सकते हैं?
मुसलमान थक गए हैं, डर गए हैं, अब वे यह झंझट नहीं चाहते हैं. अदालत में अगर आगे मामला जाता है तो सीबीआई किसके हाथ में है? जब अभियोजन पक्ष ही उनकी तरफ है केस पर फर्क कैसे पड़ेगा.
अदालतों पर भी सत्ता का पूरा-पूरा दबाव दिखता है. महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक भी फैसला लोगों के पक्ष में नहीं आया है. जैसे अमेरिका में कोविड-19 के बावजूद लोग लड़ने सड़कों पर उतर गए वैसे ही हमें भी उतरना पड़ेगा.
इंटरनेट पर दबाव बनाने से कुछ नहीं बल्कि इंटरनेट पर हमारा दबाव कम है और उनका दबाव ज्यादा है. वे लोग अभी इंटरनेट को कंट्रोल करते हैं. कई बार मेरी ही फिल्मों को एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया या उम्र संबंधी प्रतिबंध लगा दिया ताकि उसे कम लोग देखें.
देश की वर्तमान राजनीति के लिए कहीं न कहीं राम मंदिर आंदोलन को बुनियाद माना जाता है. कहा जाता है कि उसी के सहारे वर्तमान नेतृत्व की जमीन बनी. आप इस पूरे आंदोलन और घटनाक्रम कैसे देखते हैं?
इनका तर्क है कि राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी जबकि जब बाबरी मस्जिद बनी, तब राम लोकप्रिय ही नहीं थे. बाबरी निर्माण से पहले तो शिव व अन्य मंदिर बनते थे.
मूल रामायण वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखी गई थी, जिसे बहुत कम लोग समझते थे. राम मंदिर की लोकप्रियता का दौर तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस से शुरू हुआ और यही वह समय था जब बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ था. इसके बाद ही राम मंदिर बनने शुरू हुए. सबसे अधिक गहराई में जाने वाले पुरातत्वेत्ताओं को वहां बौद्ध धर्म से जुड़ी सामग्री मिली थी
इससे पहले जितने भी फैसले आए वे इतने गलत थे कि हर फैसले के बाद मैं आश्चर्यचकित रह गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि भगवान राम यानी रामलला खुद एक वादी हैं और उन्होंने अपना एक वकील को चुना है. भगवान खुद जमीन पर आकर केस लड़ रहे हैं और वह रामलला की संपत्ति है. भगवान की संपत्ति अगर इस दुनिया में हो जाएगी तो संपत्ति का मतलब क्या रह जाएगा.
अभी मथुरा में भी एक याचिका दायर की गई थी कि भगवान कृष्ण की एक संपत्ति है. एक धर्मनिरपेक्ष देश, जिसमें हमारा संविधान हमें धर्मनिरपेक्ष कहता है, में भगवान का दर्ज इतना गिरा दिया कि भगवान जमीन का झगड़ा कर रहे हैं!
‘राम के नाम’ को लेकर हुए कुछ अनुभव साझा करना चाहेंगे…
‘राम के नाम’ जब बनी तब हमने उसे दूरदर्शन पर दिखाने की बहुत कोशिश की. तब भाजपा की नहीं, कांग्रेस और उसके बाद वीपी सिंह की संयुक्त गठबंधन की सरकारें थीं लेकिन किसी ने नहीं सोचा की ऐसी फिल्म को लोगों तक पहुंचाना चाहिए.
अगर उन्होंने सोचा होता कि हमारे देश में जो चल रहा है और ऐसी फिल्म चल जाएगी तो नफरत कम हो जाएगी और लोगों को समझ में आ जाएगा कि यह पैसे और सत्ता के लिए किया जा रहा है. इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. ये सारी धर्मनिरपेक्ष सरकारें आई गईं लेकिन फिल्म नहीं दिखाई गई.
आखिरकार, अदालत के फैसले के कारण एक बार दूरदर्शन पर फिल्म आ पाई. वह भी बाबरी मस्जिद टूटने के चार-पांच साल बाद.
हम अपने देश में धर्मनिरपेक्ष जैसी संस्कृति को बढ़ावा नहीं देते हैं. वो हमारी फिल्मों को दबा देते हैं जबकि हर तरह का अंधविश्वास टीवी पर चलता है. लोगों का दिमाग बर्बाद कर रहे हैं.
इसके लिए सिर्फ भाजपा जिम्मेदार नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष लोगों ने भी इसे बढ़ावा नहीं दिया. केरल और बंगाल में वाम दलों की सरकारें थीं लेकिन उन्होंने भी ऐसा कुछ नहीं किया.