बिहार चुनाव: क्या नीतीश को बलि का बकरा बनाने के लिए भाजपा ने उन्हें सीएम प्रत्याशी बनाया है?


तीश कुमार मुख्यमंत्री बनाने के बीजेपी की घोषणा के तीर का पहला लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित अजेय छवि को बरक़रार और हार का ठीकरा उनके सिर फोड़ना है. इसके अलावा चुनाव बाद स्पष्ट बहुमत न मिलने की दशा में नीतीश को किनारे कर एलजेपी के समर्थन और कांग्रेस तथा अन्य गठबंधनों से विधायक तोड़कर बीजेपी के नेतृत्व में अगली सरकार बनाना है.


बिहार विधानसभा चुनाव में पहले दौर के मतदान में अब बमुश्किल एक हफ्ता बचा है और महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के चेहरे तेजस्वी यादव की सभाओं में भीड़ से बीजेपी की चुनावी रणनीति पर जेडीयू के भीतर से सवाल तेज हो गए हैं.


बीजेपी पर एलजेपी नेता चिराग पासवान को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले जेडीयू के नेता अब नीतीश को ही हर हाल में मुख्यमंत्री बनाने की उसकी घोषणा में छुपी नीयत पर भी संदेह कर रहे हैं.


बिहार की चुनावी फिजा में यह नया राजनीतिक प्रश्न उभरा है कि कहीं नीतीश को बलि का बकरा बनाने के लिए तो बीजेपी ने उन्हें एनडीए का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया?


इस आशंका की पुष्टि सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव पूर्ण सर्वेक्षण में 45 फीसदी बीजेपी समर्थकों द्वारा उन्हें फिर मुख्यमंत्री बनाने के विरोध से भी हो रही है.


साल 2010 में बीजेपी के 91 फीसदी समर्थकों ने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने का समर्थन किया था, जबकि 2020 में महज 55 प्रतिशत बीजेपी समर्थक ऐसा चाहते हैं. इतना ही नहीं बीजेपी के 30 फीसदी समर्थक तो नीतीश की जगह और किसी को मुख्यमंत्री बनाने के खुलेआम पक्षधर हैं.


सर्वेक्षण में नीतीश एवं तेजस्वी के बीच मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में जनता की पसंद में भी सिर्फ चार फीसदी का अंतर नीतीश के अनिश्चित भविष्य की और एक बानगी है.


सर्वेक्षण के अनुसार, नीतीश कुमार को जहां 31 फीसदी मतदाता मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं, वहीं 27 फीसदी ने तेजस्वी प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने की चाहत जताई है.


नीतीश कुमार की शख्सियत की लोकप्रियता लालू परिवार से महज एक फीसदी अधिक बची है. नीतीश को जहां 31 फीसदी ने अपनी पसंद बताया वहीं 30 फीसदी ने लालू परिवार को तवज्जो दी है.


यह सर्वेक्षण 10 से 17 अक्टूबर के बीच हुआ है इसलिए इससे मतदान के रूझान का आंशिक अनुमान तो लगाया ही जा सकता है.


सामान्यजन में भी 43 फीसदी लोग नीतीश के फिर मुख्यमंत्री बनने के विरूद्ध हैं, जबकि महज 38 फीसदी उनके समर्थन में हैं. इस तरह उनके चौथी बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने के विरूद्ध लोगों की संख्या उनके समर्थकों से पांच फीसदी ज्यादा है.


नीतीश नीत एनडीए सरकार के कामकाज से नाखुश लोगों का प्रतिशत 44 है जबकि संतुष्टों की संख्या महज 52 फीसदी है, जो 2015 में 80 फीसदी थी. इस प्रकार उनके राज से संतुष्टों की संख्या पिछले पांच साल में 28 फीसदी घटी है.


सर्वेक्षण में 20 प्रतिशत लोगों ने बेरोजगारी को सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बताकर लॉकडाउन और प्रवासी मजदूरों के दर्द को उजागर किया है.


जाहिर है कि महागठबंधन जहां इस मुद्दे पर नीतीश और बीजेपी को और अधिक घेरेगा, वहीं नीतीश कुमार एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मतदाताओं का ध्यान भटकाने को फिर से जंगलराज और विकास एवं सुशासन का राग अलापेंगे.


यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास और कश्मीर में धारा 370 खत्म करने को बीजेपी की उपलब्धि बताकर बिहार में ध्रुवीकरण का दाव चलना भी शुरू कर दिया है.


इससे साफ है कि बीजेपी-नीतीश सरकार और महामारी प्रबंधन की नाकामी की चुनाव पूर्व बदनामी से मतदाता को विमुख करने के लिए बीजेपी और सघन ध्रुवीकरण अभियान चलाएगी.


सर्वेक्षण हालांकि एनडीए को 38 फीसदी मतों के बूते 133 से 143 सीट पाकर विधानसभा में बहुमत दिला रहा है मगर महागठबंधन का वोट प्रतिशत 2015 के मुकाबले बढ़कर 32 फीसदी होने और सत्तारूढ़ गठबंधन का मत प्रतिशत पांच फीसदी घटने की चिंता भी जगा रहा है.


बिहार की 243 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए 123 विधायकों का समर्थन होना आवश्यक है. सर्वेक्षण पिछले हफ्ते मतदाता की राय के अनुसार महागठबंधन की झोली में 88 से 98 सीट आने का रूझान बता रहा है.


इस सर्वेक्षण के बाद जेडीयू समर्थकों सहित खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नींद उड़ना स्वाभाविक है. इसने नीतीश के चार दशक की बेदाग राजनीति के दावे और साल 2017 में तेजस्वी के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर महागठबंधन सरकार गिराने तथा दोबारा बीजेपी के साथ सरकार बनाने के औचित्य पर भी सवालिया निशान लगा दिया है.


नीतीश और उनके समर्थक जो कल तक तेजस्वी की अनुभवहीनता को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री को बिहार की राजनीति का विराट व्यक्तित्व साबित करने में लगे थे अब क्या कहेंगे?


तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश से महज चार फीसदी ही कम लोगों की पसंद सामने आने से यह भी साबित हो गया कि युवाओं का एनडीए से मोहभंग हो रहा है. इससे बेरोजगारी और महामारी से बचने को प्रवासी मजदूरों के बीवी-बच्चों सहित सैकड़ों मील पदयात्रा के लिए मजबूर होने से उपजी नाराजगी भी जाहिर हो रही है.


सर्वेक्षण में 30 फीसदी बीजेपी समर्थकों से नए चेहरे को मुख्यमंत्री बनता देखने की ख्वाहिश जताकर बीजेपी की एक तीर से दो निशाने साधने की रणनीति भी उजागर हो गई.


नीतीश को ही मुख्यमंत्री बनाने के बीजेपी की घोषणा के तीर का पहला लक्ष्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित अजेय छवि को बरकरार रखना है. यदि बिहार चुनाव में सत्ता से महरूम रहना पड़े तो ठीकरा नीतीश के सिर फोड़ा जा सके. दूसरा निशाना है कि चुनाव के बाद स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में नीतीश को किनारे करके एलजेपी के समर्थन और कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी गठबंधनों से विधायक तोड़ कर बीजेपी के नेतृत्व में अगली सरकार बनाना है.


एलजेपी से नीतीश के नेतृत्व के खिलाफ और अगला मुख्यमंत्री बीजेपी से होने के पक्ष में पहले ही झंडा बुलंद कराया जा चुका है. सर्वेक्षण भी बता रहा है कि एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा नीत गठबंधन चुनाव में वोटकटवा साबित हो सकते हैं.


इससे साफ है कि पासवान समर्थक विधायक चुनाव बाद नीतीश को मुख्यमंत्री कबूल नहीं करेंगे और बीजेपी उनके तथा अन्य दलों से तोड़े गए विधायकों के समर्थन से नित्यानंद राय अथवा अपने किसी अन्य नेता को मुख्यमंत्री बना सकेगी.


इसमें यदि एलजेपी दहाई में विधायक जिता लाई तो उसे भी जेडीयू के साथ-साथ उपमुख्यमंत्री पद देकर सरकार में शामिल किया जा सकता है. हरियाणा की मिसाल सामने है जहां विधानसभा में महज 11.5 फीसदी सीट जीतने वाले दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी का समर्थन पाने के लिए उन्हें उपमुख्यमंत्री कबूल करके बीजेपी खट्टर के नेतृत्व में एनडीए सरकार चला रही है.


चुनाव में अपनी लुटिया डूबने पर नीतीश की जेडीयू के सामने अब विपक्षी महागठबंधन के समर्थन से अपने नेतृत्व में नई सरकार बना लेने का विकल्प भी नहीं बचा. उनकी अब साल 2013 अथवा साल 2015 जैसी स्थिति नहीं है.


साल 2013 में उन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बीजेपी द्वारा साल 2014 के आम चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने के बाद एनडीए तोड़कर यूपीए तथा वाम मोर्चा के समर्थन से अपनी सरकार बचा ली थी.


उनके जेडीयू के भी तब विधानसभा में 115 विधायक थे जिनकी संख्या 2020 में आधी से भी कम रह जाने के आसार सर्वेक्षण जता रहा है. नीतीश की कलाबाजी से तब बीजेपी को चार साल राज्य में सत्ता से बेदखल रहना पड़ा था.


फिर साल 2014 में जेडीयू और यूपीए ने लोकसभा का चुनाव अलग-अलग लड़ा और बुरी तरह शिकस्त खाई. इससे सबक लेकर नीतीश ने 2014 में उन लालू यादव की राजद और कांग्रेस से महागठबंधन किया जिसे वो बीजेपी की सोहबत में जंगलराज का प्रतीक कहते नहीं अघाते थे.


महागठबंधन के हाथों 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी-एनडीए को करारी हार झेलनी पड़ी और नीतीश मुख्यमंत्री तथा लालू पुत्र तेजस्वी यादव जेडीयू से अधिक सीट जीतने के बावजूद उपमुख्यमंत्री बने.


नीतीश के एनडीए छोड़ने का अप्रत्यक्ष फायदा बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ने से अवश्य हुआ, जिसका अब उसके नेता राज्य का नेतृत्व खुद संभालने और नीतीश को उनकी औकात बताने के लिए दोहन करना चाह रहे हैं.


यह दीगर है कि महागठबंधन द्वारा बीजेपी के अपने ही गठबंधन साथी के खिलाफ इस कथित षड्यंत्र का भंडा फोड़ने के बाद उसे रक्षात्मक मुद्रा अपनानी पड़ी है.


पहले राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी फिर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और अंतत: गृहमंत्री अमित शाह ने चुनाव बाद नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की सफाई देकर लीपापोती की है.


इसके बावजूद रायता तो फैल चुका और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने दिल में बसे होने जैसे बयान देकर चिराग पासवान द्वारा नीतीश को हाशिये पर धकेलने की कोशिश जारी है.


बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एलजेपी को अभी तक एनडीए से बाहर करने की घोषणा भी नहीं की है, जिससे विपक्षी आरोप लोगों के गले उतरने लगा है.


उधर, तेजस्वी यादव भी लगातार नीतीश के सुशासन के दावों को आंकड़ों से झुठलाने और अपने पिता लालू यादव द्वारा नीतीश को पलटू बताने वाला जुमला जनता को याद दिलाकर उनकी छवि तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.


कांग्रेस सहित महागठबंधन में शामिल वामपंथी दल और उपेंद्र यादव नीत ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट एवं पप्पू यादव की जाप (जन अधिकार पार्टी) नीत गठबंधन भी नीतीश के पीछे नहा-धोकर पड़ा है.


नीतीश को धकिया कर बीजेपी द्वारा बिहार की सत्ता खुद हथियाने का मंसूबा उजागर होने का खामियाजा मुसलमानों के महागठबंधन के पीछे लामबंद होने और जेडीयू से विमुख होने के रूप में भी मुख्यमंत्री को भुगतना पड़ सकता है.


यूं भी कांग्रेस और राजद ने कुल 25 मुसलमान नेताओं को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाया है, जो राज्य विधानसभा की कुल 243 सीटों के दस फीसदी से अधिक है. इनके मुकाबले जेडीयू ने महज 11 मुसलमानों को ही टिकट दिया है, जबकि एनडीए में बीजेपी ने तो एक भी मुसलमान उम्मीदवार नहीं उतारा.


नीतीश कुमार और एनडीए ने साल 2015 के विधानसभा चुनाव में पांच सप्ताह लंबे चुनाव अभियान का नतीजों पर पड़े गहरे प्रभाव से कोई सबक नहीं लिया. तब भी चुनाव की घोषणा के समय एनडीए सबसे आगे था परंतु जैसे-जैसे अभियान परवान चढ़ा, एनडीए पिछड़ता गया.


अभियान खत्म होने तक बीजेपी विकास के वायदों के बजाय व्यक्तिगत हमलों पर उतर आई थी. उसे बिहार के मतदाताओं ने सिरे से खारिज कर दिया जबकि ताजा विधानसभा चुनाव अभियान तो एनडीए ने शुरू ही विपक्षियों के चरित्रहनन से किया है.


उसका फोकस ही लालू यादव की सत्ता के जमाने का जंगलराज है, जबकि उसके बाद नीतीश कुमार खुद 15 साल लगातार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके. उसमें भी तीन साल लालू यादव के समर्थन से ही वे मुख्यमंत्री रह पाए. उसमें दो साल तो महागठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने लालू के बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप को अपना मंत्री बनाकर उनके बूते ही राज किया.


नीतीश भले ही राजनीति में अपनी साफ-सुथरी छवि और सुशासन बाबू होने का दावा करें मगर हरियाणा के भजनलाल के बाद वे सत्ता की राजनीति में अवसरवाद की सबसे बड़ी मिसाल हैं.


नीतीश ने जैसे जुलाई 2017 में जनादेश को धता बताते हुए लालू यादव को झटक कर बीजेपी के साथ सरकार बनाई कुछ उसी तरह भजनलाल भी जनवरी, 1980 में 35 विधायकों सहित जनता पार्टी के 50 सदस्यीय विधायक दल को तोड़कर कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने थे.


नीतीश दरअसल 1994 में समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में जनता दल तोड़कर बनी समता पार्टी में शामिल हो गए थे.


हालांकि उसके बाद 1996 के बिहार विधानसभा चुनाव में समता पार्टी को बस छह सीट और पांच फीसदी वोट ही मिल पाए. जिससे हतोत्साहित होकर वे बीजेपी के मुंबई अधिवेशन में जा पहुंचे. फिर बीजेपी नीत केंद्र की एनडीए सरकार में मंत्री रहे तथा अंतत: 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने.


उनके राजनीतिक करिअर का सुनहरा काल साल 2010 से 2015 रहा, जब विधानसभा में जेडीयू के 115 विधायक थे. देखना यही है कि साल 2020 का विधानसभा चुनाव नीतीश की नाव को किस ठांव पहुंचाएगा?


उनकी लोकप्रियता के गिरते ग्राफ को पिछले सवा साल में खुद 15 फीसदी लोकप्रियता खो चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनाव सभाओं से सहारा मिलेगा अथवा अपने स्वभावानुसार बीजेपी ‘एक धक्का और दो’ का मंत्र दोहरा कर उन्हें ठिकाने लगाने में कामयाब रहेगी?


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