बिहार: ‘मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी ख़ैर नहीं’ वाली लोजपा की रणनीति कितनी कारगर होगी


चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा ने बिहार चुनाव में एनडीए गठबंधन से अलग होकर चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह भाजपा के अंदरखाने का गणित है, जहां वह सत्ता की चाभी नीतीश कुमार से छीनकर अपने पास रखना चाहती है.


बिहार में 28 अक्तूबर से तीन चरणों होने जा रहे विधानसभा चुनावों से ठीक पहले एक अप्रत्याशित फैसला लेते हुए लोक जन जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने राज्य में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया था.


इस फैसले के गुण-दोष से लेकर इसके असर को लेकर राजनीतिक बयानबाजियां चल ही रही थीं कि गुरुवार शाम लोजपा संरक्षक और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया.



पासवान के गुजरने के बाद चिराग के लिए स्थितियां संभवतया वैसी नहीं रहेंगीं, जैसी निर्णय लेते समय उन्होंने सोचा होगा.


चिराग का यह फैसला जहां भाजपा के लिए राहत भरा नजर आता है, तो वहीं उसने गठबंधन की सहयोगी और सत्ताधारी जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं.


लोजपा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर निशाना साधते हुए चुनाव में जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशियों को उतारने की घोषणा की है,  हालांकि, पार्टी ने यह सुनिश्चित किया है कि वह भाजपा के उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेगी.


पार्टी ने कहा कि वह ‘बिहार पहले, बिहारी पहले’ दृष्टि दस्तावेज को लागू करना चाहती थी, जो उसने राज्य के लाखों लोगों के साथ बातचीत के बाद तैयार किया था, लेकिन गठबंधन में इस पर सहमति नहीं बन सकी


.


चिराग पासवान के इस फैसले के बाद एनडीए की बैठक हुई थी, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी, बिहार भाजपा चुनाव प्रभारी देवेंद्र फडणवीस, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल और बिहार भाजपा प्रभारी भूपेंद्र यादव शामिल थे.


बैठक के बाद लोजपा नेता चिराग पासवान को झटका देते हुए भाजपा ने स्पष्ट किया कि नीतीश कुमार बिहार में राजग के नेता हैं और गठबंधन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा.


वहीं, जदयू द्वारा गठबंधन के सहयोगियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करने के चिराग के आरोप पर नीतीश कुमार ने पूछा था कि क्या रामविलास पासवान राज्यसभा के लिए जदयू के समर्थन के बिना निर्वाचित हुए?


चुनाव बाद की स्थिति को लेकर एक सवाल पर बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा, ‘हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि नीतीश कुमार हमारे मुख्यमंत्री होंगे. चाहे किसी पार्टी का चुनाव में कितनी भी सीटें मिले, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’


उन्होंने कहा कि आवश्यकता पड़ेगी तो वे चुनाव आयोग को लिखकर देंगे कि बिहार में राजग से जुड़े सिर्फ चार दल ही प्रधानमंत्री के चित्र का इस्तेमाल कर सकते हैं, अन्य किसी को प्रधानमंत्री का चित्र इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं होगा.


मोदी ने यह भी कहा कि अगर आज रामविलास पासवान जी स्वस्थ रहते, तो ये परिस्थिति पैदा नहीं होती.


हालांकि, अब रामविलास पासवान के गुजरने के बाद वर्तमान परिस्थितियों को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि कोई भी नया बदलाव संभव हो सकेगा.


साल 2015 में 42 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली लोजपा इस बार एनडीए गठबंधन में 36 सीटें चाहती थी, पर जदयू और भाजपा के साथ उसका यह तालमेल नहीं बैठ पाया. फिलहाल राज्य में लोजपा के दो विधायक हैं.


इस बीच बिहार में लगे नजर आए ‘मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं’ वाले पोस्टर ने स्पष्ट कर दिया कि लोजपा की सीधी नाराजगी जदयू से है. कहा जा रहा है कि यह पोस्टर लोजपा द्वारा लगवाया गया है.


इस पोस्टर के अनुसार नीतीश कुमार कुर्सी को प्रथमिकता देते हैं, जबकि नरेंद्र मोदी के साथ खड़े दिख रहे चिराग पासवान की पहली प्राथमिकता बिहार है.


(फोटो साभार: ट्विटर)

(फोटो साभार: ट्विटर)



याद हो कि लोजपा ने राज्य में फरवरी 2005 में हुए चुनाव में भी इसी तरह की रणनीति अख्तियार की थी. तब वह केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन का हिस्सा थी, लेकिन बिहार में यूपीए के प्रमुख घटक दल राजद के खिलाफ लड़ी थी.


शुरू में तो उसकी रणनीति काम आई और त्रिशंकु विधानसभा में लोजपा के 29 विधायक चुनकर आए. हालांकि, बाद में विधानसभा भंग हो गई और नए सिरे से चुनाव हुए.


लोजपा एक बार फिर अलग होकर लड़ी, लेकिन वह केंद्र में यूपीए में शामिल रही. हालांकि इस बार जनता ने नीतीश कुमार की अगुवाई वाले एनडीए को स्पष्ट जनादेश दिया और 2005 में राज्य में लालू प्रसाद की राजद का 15 साल का शासन समाप्त हो गया.


क्या होगा चिराग के फैसले का असर


बिहार में लोजपा के फैसले को राजनीतिक विश्लेषक अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं जहां कुछ का मानना है कि यह नीतीश कुमार को किनारे लगाने की भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, वहीं कुछ का मानना है कि चिराग पासवान अपने विकल्प खुले रखना चाहते हैं.


साथ ही कुछ विश्लेषक मानते हैं कि रामविलास पासवान के निधन के बाद उपजी सहानुभूति लोजपा के पक्ष में काम कर सकती है.


बिहार के राजनीतिक जानकार नवल किशोर चौधरी यही मानते हैं. वे कहते हैं, ‘रामविलास पासवान के निधन से चिराग पासवान को लेकर एक सहानुभूति का माहौल बनेगा और इससे उन्हें फायदा होगा. पासवान और अन्य दलित जातियों के वोट के साथ कुछ हद तक अन्य तबके के वोट भी मिलने की संभावना बन सकती है.’


वे कहते हैं, ‘रामविलास ने एक बड़े नेता के रूप में खुद को स्थापित कर लिया था लेकिन फिर भी वह एक तबके में ही स्वीकार्य थे. इसलिए उन्होंने जिस पार्टी की स्थापना की थी उसे फायदा तो मिलेगा लेकिन वह फायदा इतना बड़ा नहीं होगा कि उससे चुनाव परिणामों पर कोई बहुत बड़ा असर पड़े.’


किशोर की बात पर एक अन्य विश्लेषक शैबाल गुप्ता भी सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘रामविलास पासवान की दलितों वोटरों में अच्छी पैठ थी और चुनाव से ठीक पहले उनके अचानक निधन से दलित वोट एकजुट होंगे और इससे लोजपा को फायदा होगा.’


वहीं, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश इस फैसले से लोजपा को साफ तौर पर कोई फायदा होते हुए नहीं देख रहे हैं. वे कहते हैं, ‘चिराग पासवान के फैसले से भाजपा को फायदा हो सकता लेकिन यह कहना मुश्किल है कि लोजपा को कितनी सीटें मिलेंगी.’


वे आगे कहते हैं, ‘पिछली बार उसे दो सीटें मिली थीं. इसका कारण है कि लोजपा बिहार की बड़ी पार्टी नहीं है. वह बड़ी पार्टियों के कंधे पर बैठकर सत्ता की सवारी करती रही है. इस बार वह भाजपा के कंधे पर है और भाजपा उसे अपना कंधा अपने फायदे के लिए दे रही है. उसे एक दलित चेहरा चाहिए और चिराग पासवान के रूप में उसे एक ऐसा आदमी मिला है जो अपने पिता की तरह बहुत राजनीतिक नहीं है और उन्हें भाजपा अपने तरीके से इस्तेमाल कर सकती है.’


उर्मिलेश की बातों से सहमति जताते हुए शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘चिराग का जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारना साफ तौर पर भाजपा की नीतीश कुमार को किनारे करने की रणनीति है और अब वह राज्य में सत्ता की कमान अपने हाथ में लेने के लिए तैयार है.’


वे कहते हैं, ‘आप देखिए कि किस तरह से भाजपा नेता एक के बाद एक लोजपा में जा रहे हैं.’


ज्ञात हो कि लोजपा के राज्य में एनडीए से अलग होकर लड़ने के ऐलान के बाद से अब तक भाजपा के दो नेता लोजपा का दामन थाम चुके हैं. भाजपा नेताओं उषा विद्यार्थी और राजेंद्र सिंह ने बीते दिनों में लोजपा में शामिल हुए हैं.


हालांकि, किशोर का मानना है कि चिराग पासवान महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं, लेकिन निर्णायक भूमिका में नहीं हैं.


वे कहते हैं, ‘चिराग पासवान का आंशिक तौर पर एनडीए छोड़ना खासकर हाथरस (उत्तर प्रदेश) मामले को देखते हुए वोटों की संख्या और जनता के बीच धारणा के रूप में नीतीश कुमार की दलित विरोधी छवि को पेश करेगा. मुस्लिम तो पहले ही उनके साथ ही नहीं था और अब वे इस दबाव में बार-बार जंगलराज की बात कर रहे हैं. चिराग पासवान महत्वपूर्ण हैं, लेकिन संभवतया उन्होंने कुछ ज्यादा ही सोच लिया है. चिराग का फैसला बहुत कुछ बदल देने वाला नहीं है.’


किशोर कहते हैं, ‘भाजपा ने 60 फीसदी टिकट ऊंची जातियों को दिए हैं और अगर ऐसी धारणा बनेगी की आप नीतीश कुमार को किनारे कर रहे हैं तो गैर सवर्ण जातियों में क्या संदेश जाएगा. भले ही प्रधानमंत्री कहें कि वे पिछड़ी जाति के हैं, लेकिन बिहार में भाजपा की छवि अब भी ऊंची जाति वाले दल की है. नीतीश कुमार की छवि को भले ही कुछ नुकसान हुआ हो लेकिन वह अब भी बनी हुई है.’



वहीं, वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश के रे कहते हैं कि लोजपा के इस फैसले के पीछे कई कारण माने जा सकते हैं और जो सही भी हो सकते हैं.


वे कहते हैं, ‘इसमें चाहे भाजपा का नीतीश कुमार से पीछा छुड़ाना हो या फिर लोजपा का बिहार एनडीए गठबंधन में जदयू गठबंधन की जगह लेना हो. मगर मेरा मानना है कि लोजपा ने यह फैसला अपना आधार बढ़ाने के लिए लिया है. कोई भी छोटी पार्टी अपना आधार बढ़ाना चाहेगी और लोजपा वही कर रही है.’


रे की बातों से सहमति जताते हुए किशोर कहते हैं, ‘चिराग इस समय बहुत सतर्क हैं. वे कई उद्देश्य लेकर चल रहे हैं. सबसे पहले तो वे अपने आपको जमीनी नेता साबित करना चाहते हैं. दूसरे वे पार्टी का आधार बढ़ाना चाहते हैं. अगर वे 143 सीटों पर लड़ते हैं तो हर जगह उनके वोट होंगे. तीसरी बात है कि वे अपने काडर को अपने साथ रखना चाहते हैं. अगर वे अभी चुनाव नहीं लड़ेंगे तो वो दूसरी पार्टी में चले जाएंगे. ऐसा हो सकता कि वह खुद को बिहार के भविष्य के नेता के रूप में देख रहे हों.’


चिराग के अलग राह लेने पर उर्मिलेश कहते हैं, ‘लोजपा के फैसले का मतलब है कि भाजपा और जदयू के बीच में बिहार की भावी सत्ता संरचना को लेकर विचारों की एकरूपता नहीं है.’


वे कहते हैं, ‘भाजपा इस चुनाव के राजनीतिक समीकरणों को अपने ढंग से प्रभावित कर रही है. वह एक महत्वपूर्ण और निर्णायक ताकत है और जैसा चाहती है वैसा कर रही है. इससे पहले केंद्र में भले ही भाजपा महत्वपूर्ण रहती थी लेकिन राज्य में जदयू ही महत्वपूर्ण रहती थी. हालांकि, इस बार ऐसा नहीं है.’


क्या बिहार में महाराष्ट्र जैसी स्थिति बन सकती है?


लोजपा के जदयू के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने को भाजपा के किसी अंदरूनी गणित होने के सवाल पर नवल किशोर कहते हैं कि ऐसा हो सकता है और राजनीति में किसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.


वे कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि भाजपा नीतीश कुमार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकती है. नीतीश कुमार के पास भी अपने पत्ते हैं. क्या भाजपा यह भूल सकती है कि नीतीश महागठबंधन में शामिल हो सकते हैं? तेजस्वी भले ही इसके लिए तैयार न हों लेकिन कांग्रेस इस पर विचार कर सकती है.’


वे कहते हैं, ‘क्या भाजपा महाराष्ट्र से कोई सीख नहीं लेगी? क्या कोई सोच सकता था कि कांग्रेस शिवसेना को समर्थन दे सकती है लेकिन ऐसा हुआ.’


अपनी बात पूरी करते हुए वे कहते हैं, ‘आज भाजपा जानती है कि बिहार में उसके पास कोई विश्वसनीय चेहरा नहीं है. फिलहाल ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है कि दिल्ली में (नरेंद्र) मोदी और पटना में (सुशील) मोदी हो. मौजूदा परिस्थिति में भाजपा जानती है कि उसके पास नीतीश के अलावा कोई विकल्प नहीं है. महाराष्ट्र में पैदा हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भाजपा ऐसा कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहेगी.’


बता दें कि लोजपा ने 2015 के चुनाव में 42 सीटों पर चुनाव लड़ा था और इनमें दो सीटों पर जीत दर्ज की थी. पूरे राज्य में उसका मत प्रतिशत 4.83 फीसदी था.


इससे पहले साल 2010 में पार्टी ने 75 सीटों पर चुनाव लड़ा था और तीन सीटें हासिल की थीं. इस दौरान पूरे राज्य में उसका मत प्रतिशत 6.74 था.


नरेंद्र मोदी के साथ रामविलास पासवान और चिराग पासवान. (फाइल फोटो: पीटीआई)

नरेंद्र मोदी के साथ रामविलास पासवान और चिराग पासवान. (फाइल फोटो: पीटीआई)



प्रकाश के रे कहते हैं, ‘कोई भी छोटी पार्टी खुद को सत्ता के करीब रखना चाहती है और भाजपा पर भरोसा जताकर उसने वही किया है. लोजपा का नेतृत्व अब नई पीढ़ी के पास है, तो वह अपनी पकड़ बनाने की रणनीति पर अग्रसर है.’


वहीं, नवल किशोर ऐसी संभावना भी जताते हैं कि हो सकता है कि चिराग 10-12 विधायकों के साथ भी मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे हों.


किशोर का मानना है कि इस समय चिराग मधु कोड़ा, एचडी कुमारस्वामी, उद्धव ठाकरे बनने की कोशिश में लगे हैं, क्या पता कोई उन्हें मुख्यमंत्री मान ले. क्या पता कल 10 सीट के बदले कोई चिराग को मुख्यमंत्री पद दे दे. उनके पास कोई विचारधारा तो है नहीं और आजकल विचारधारा है किसके पास? चुनाव के बाद वाली स्थिति बहुत ही दिलचस्प होगी.


चिराग को एनडीए के युवा चेहरे के रूप में पेश किए जाने के सवाल उर्मिलेश कहते हैं, ‘भाजपा उन्हें युवा चेहरे के रूप में तब पेश करेगी जब वे भाजपा में शामिल हो जाएं. फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं है, भविष्य में हो सकता है. यह बात है कि बिहार में इस बार कुछ युवा और अच्छे चेहरे खासकर वाम दलों की ओर से उतर रहे हैं.’


वे कहते हैं, ‘महागठबंधन के पास पार्टियां भले ही हैं लेकिन एक मजबूत नेतृत्व की कमी है. तेजस्वी यादव में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव है. जितने भी युवा नेता हैं वे राजनीतिक रूप से जागरूक तो हो सकते हैं लेकिन उनमें अनुभव और कौशल की कमी है.’


वहीं, रे कहते हैं, ‘चिराग पासवान ने राज्य की जनता को एक पत्र लिखते हुए कहा है कि जदयू के उम्मीदवार को वोट देकर एक भी वोट बर्बाद न करें. इसका मतलब है कि कल अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन की सरकार आ जाती है और नीतीश कुमार के बुरे शासन का दौर जारी रहता है तब वह कह सकेंगे कि मैंने तो आपको चेतावनी दी थी.’


गौरतलब है कि भावनात्मक रूप से लिखे गए इस पत्र में चिराग ने लोगों से आग्रह किया है कि वे जदयू के उम्मीदवार को वोट देकर एक भी वोट बर्बाद न करें और कहा कि बिहार में अगले महीने चुनावों के बाद भाजपा-लोजपा की सरकार होगी.



 


उन्होंने पत्र में लिखा है, ‘जदयू उम्मीदवार को जाने वाला प्रत्येक वोट आपके बच्चों को राज्य से पलायन करने के लिए मजबूर करेगा. यह 12 करोड़ बिहारियों के लिए करो या मरो की लड़ाई है और हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. मैं जानता हूं कि लोजपा के लिए आगे की राह आसान नहीं है, लेकिन बिहार के लोगों के लिए भी पिछले तीन दशकों से यह आसान नहीं रहा है.’


बिहार विधानसभा चुनाव के लिए तीन चरणों में 28 अक्टूबर, तीन नवंबर और सात नवंबर को मतदान किया जाएगा. मतगणना 10 नवंबर को होगी.


बिहार विधानसभा चुनाव के लिए एनडीए में सीटों के बंटवारे के तहत भाजपा 121 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि जदयू के हिस्से में 122 सीटें आई हैं. जदयू ने अपने खाते से जीतनराम मांझी की ‘हम’ पार्टी को सात सीटें दी हैं.


वहीं भाजपा ने महागठबंधन छोड़कर आए मुकेश साहनी को अपने हिस्से से 11 सीटें दी हैं.


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