भारतीय समाज में आप भले ही जाति को मौजूद न जानें, लेकिन जाति सबको जानती है.
उम्र कोई 7-8 की रही होगी. किसी दोस्त के घर पर था. किसी एक बड़े व्यक्ति ने पूछा, जाति क्या है?
मेरे लिए यह शब्द नया था. घर जाने पर बाबूजी से पूछा. मालूम हुआ हमें ब्राह्मण कहा जाता है. बाद में किसी ने कभी पूछा हो लंबे समय तक, याद नहीं. कुलनाम से ही जाति की सूचना मिल जाती थी. एक अयाचित आदर भी.
सीवान में शेख मोहल्ले के बाद जिस दूसरे मोहल्ले में बड़ा हुआ उसका नाम था तुरहा टोली. सब्जी का कारोबार करने वालों का टोला. पिता कॉलेज में अध्यापक थे.
हम जिनके मकान में किरायेदार थे, वे सीवान में सोने-चांदी के बड़े कारोबारी की सास थीं. एक तरफ दो कुम्हार थे. दूसरी ओर सुनारों के घर और सामने एक भड़भूंजा.
एक बंगाली परिवार भी था जिनसे हमारी निकटता हुई. दे साहब और बीथिका दे. उनका चाय का व्यापार था. अब याद करता हूं तो वह मोहल्ला जातियों का इंद्रधनुष मालूम पड़ता है. लेकिन आश्चर्य कि उस समय जाति की कोई समझ नहीं बन पाई!
स्कूल में एक नए मास्टर आए. उन्हें नवकू मास्टर साहब या मोची मास्टर साहब भी पुकारा जाता था. जाहिर है, वे मोचियों के समुदाय से होंगे.
स्कूल में किसी और को उनके जातीय समुदाय से जोड़कर संबोधित किया जाता हो, याद नहीं. लेकिन नवकू मास्टर साहब के साथ यह छूट ज़रूर ली जाती थी.
तुरहा टोली में आने के पहले, जो कागजी मोहल्ला के भीतर थी हम शेख मोहल्ले में थे. पिता सिलचर के कॉलेज से सीवान के डीएवी कॉलेज में आए. लोभ अपने गृह प्रदेश लौटने का था.
हालांकि बाद की उनकी बातचीत और लिखे से जान पड़ता है कि सिलचर ने तब के बिहार से आए एक युवा दंपति को स्नेह से स्वीकार किया था और उनका रहना वहां सहज बनाने के लिए काफी यत्न किया था.
फिर भी संभवतः बच्चों के हिंदी से दूर हो जाने का भय और घर का एक अतार्किक खिंचाव उन्हें उनके अपने घर, देवघर से काफी अलग सीवान में ले आया. सीवान आने के बाद क्यों उन्होंने शेख मोहल्ले में मकान किराये पर लिया, इसके बारे में हम आज भी काफी बातें करते हैं.
1961 तो 1947 के करीब था. और सीवान आने के पहले सिलचर में उनका दिन रात का उठना बैठना बांग्ला भाषी मित्रों के साथ ही था. उनके साथ जिन्होंने पाकिस्तान निर्माण की आंच झेली थी और वे प्रायः हिंदू ही थे. फिर भी मुसलमानों के प्रति कोई तिक्त स्मरण लेकर पिता नहीं लौटे थे.
इसके बावजूद यह बात आज भी हैरान करती है कि सीवान आकर एक मुसलमानबहुल मोहल्ले में मकान लेने में इस युवक अध्यापक को कोई संकोच नहीं हुआ और उसकी पारंपरिक पत्नी को भी कोई उज्र नहीं हुआ.
शेख मोहल्ले के कई संस्मरण हैं. हमारे मकान मालिक थे हाशिम साहब. इस्लामिया हाईस्कूल के हेडमास्टर. मज़े के आदमी थे. शख्सियत में ख़ासा इत्मीनान. पान के शौक़ीन.
उनसे बाबूजी की गपशप होती रहती थी. बाद में बाबूजी ने कभी बताया कि शरीफ मिजाज़ के हाशिम साहब उनसे कहते थे, ‘आप लोगों से कोई परेशानी नहीं है झाजी! दिक्कत है नन्हजतियन से. नान्ह यानी छोटा.’
इस सीवान में डीएवी हाईस्कूल और बाद में कॉलेज में मित्रता रमेश मांझी (नाम बदला हुआ, कुलनाम नहीं) से हुई. औरों से भी. लेकिन रमेश की मित्रता को याद करना इस लेख के लिए प्रासंगिक है.
गौरवर्ण और सुदर्शन, उतना ही प्रतिभाशाली. लेकिन होठों पर हमेशा एक मुस्कान व्यंग्योक्ति की तरह. वह मुस्कान चुभती थी. मानो आपके अस्तित्व को चुनौती दे रही हो.
रमेश से बातचीत में पहली बार जाति का अर्थ समझ में आया. उसका गौरवर्ण होना और सुदर्शन व्यक्तित्व गांव में फब्तियों और लांछन का कारण था.
वह किसी और का बीज है, अपने पिता का नहीं; उसके कान यह सुनते-सुनते इतने अभ्यस्त हो गए थे कि इसे बताते हुए उसके स्वर में एक तथ्य कथन जैसी उदासीनता ही रहती थी.
यह भी कि वह या उसकी जाति के लोग चप्पल पहनकर उच्च जाति के लोगों के सामने नहीं चल सकते, चारपाई पर बैठ नहीं सकते, साइकिल पर सवार होकर नहीं गुजर सकते उनके सामने से.
रमेश की मित्रता के साथ ही कल्याण विभागीय छात्रावास में आना जाना हुआ. पहली राजनीतिक गतिविधि का केंद्र भी वही बना. उसे हरिजन हॉस्टल भी कहते थे.
फिर पटना आ गया. रमेश को इसी समय बीआईटी सिंदरी में दाखिला मिल गया, लेकिन उसका गुजारा वहां मुश्किल था. पैसे न थे. अगर मुझे गलत याद नहीं तो कुछ समय तक मित्रों ने मिल-जुलकर कुछ किया.
फिर हमने तय किया कि मुख्यमंत्री से मिलकर छात्रवृत्ति जारी करवाने के लिए अनुरोध करेंगे. जगन्नाथ मिश्रा तब मुख्यमंत्री थे.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में उनके परिचित या रिश्तेदार के जरिये मुख्यमंत्री के जनता दरबार में पहुंचे. महीना याद नहीं रह गया है. लेकिन वह चिलचिलाती, जला और सुखा देने वाली धूप याद है.
हम, मैं और रमेश मुख्यमंत्री के सामने अर्जी लगाने खड़े रहे. कहीं वे आकर चले न जाएं, इस भय से हिले नहीं. अब भी याद है दोपहर बाद तक गिरने-गिरने की हालत हो गई थी. लेकिन मुख्यमंत्री के दर्शन नहीं हुए. हम निराश लौट आए.
रमेश से वह आखिरी संपर्क था. वह अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई जारी नहीं रख सका. हमारे जीवन से लापता हो गया. बहुत बाद में मालूम हुआ कि किसी बैंक में नौकरी करने लगा.
उसके साथ उस गर्मी की दोपहर की चिलचिलाहट मेरी देह में अब भी है. प्रतिभा को समाज सम्मान देता है, यह धारणा खंड-खंड हो गई.
चाहे तो लोग कह सकते हैं कि रमेश को दाखिला तो मिल ही गया था, आर्थिक कारण से वह अगर वहां नहीं टिक पाया तो जाति की चर्चा क्यों! क्या सचमुच मामला इतना सीधा है?
क्या अर्थ, जाति, प्रतिभा का आपस में कोई रिश्ता नहीं? क्या रमेश मांझी न होकर कुछ और होता तो भी उसे पढ़ाई इस तरह छोड़नी पड़ती?
उसी सीवान में रहते हुए उस हिंसा की ख़बरों की याद है जो महाराष्ट्र से आ रही थीं. एक विश्वविद्यालय का नाम भीमराव आंबेडकर पर रखा जाए, इस मांग के कारण ही थी यह हिंसा.
खबर पर घर में होने वाली तीखी राजनीतिक बहसों में कभी चर्चा हुई हो, इसकी याद नहीं. एक नाम पर इतनी हिंसा! यहं सब कुछ बेतुका लगा था.
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1991 का विधानसभा चुनाव था. पटना में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के दुस्साहसी संपादक उत्तम सेनगुप्ता ने एक प्रयोग किया. गैर पत्रकारों से चुनाव की रिपोर्टिंग करवाई जाए, यह ख़याल उत्तम जी के दिमाग में ही आ सकता था.
मैंने सीवान, गोपालगंज चुना. तब तक शहाबुद्दीन का नाम राजनीति में और खासकर उस इलाके में स्थापित हो चुका था. लौटकर जो रिपोर्ट लिखी, उसका शीर्षक अब तक याद है, ‘शहाबुद्दीन की सेकुलर सेना.’
बेहतर होता कहना सेकुलर, सवर्ण सेना, हालांकि उसमें पिछड़ी जाति के लोग भी शामिल थे. सीपीआईएमएल को दूर रखने के लिए सारे भूमिपतियों ने, और उनमें ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार शामिल थे, शहाबुद्दीन के साथ गठजोड़ स्वीकार किया था.
अपने भूमि हितों की रक्षा के लिए ‘सवर्णों’ को अपराध की राजनीति से कोई उज्र न था. सीपीआईएमएल की ईमानदार और गरीबों के पक्ष की राजनीति उन्हें कबूल न थी.
वह चुनाव इसलिए दिलचस्प था कि टीएन शेषन के बंदोबस्त के चलते मतदान के पहले सारी बंदूकें जब्त हो गई थीं. एक रात किसी बाबू साहब के घर टिका था. देखा वे अपनी एयरगन साफ कर रहे थे. उसी से काम चलाने की मजबूरी थी!
उस चुनाव में अनुमान से ठीक उलट लालू यादव की निर्णायक जीत हुई. कारण, वे सब उमड़कर बूथ तक पहुंचे, जिन्हें पहले के चुनावों में पहुंचने ही नहीं दिया जाता था.
‘नान्ह जात’ ने लालू प्रसाद को दुबारा मौक़ा दिया. लालू उस विश्वास की रक्षा करने में असफल रहे, या उसकी परवाह ही नहीं की, यह बात अलग है.
इसी क्रम में ध्यान आया कि जब भ्रष्टाचार को सामाजिक न्याय की राजनीति से अभिन्न बताया जाता है तो अक्सर अपराध की जाति नहीं बताई जाती.
सिंह, पाण्डेय, मिश्रा, शुक्ला- क्या आपने बिहार के राजनीतिक रूप से प्रभावशाली अपराधियों के नाम में इनके अलावा और कोई उपनाम देखा है?
कैसे इन सबने ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति के साथ तालमेल बैठाकर अपना कारोबार जारी रखा, इसपर हमने कभी विचार ही नहीं किया.
अभी जब उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की बहस सुन रहा हूं तो बचपन का सीवान याद आ रहा है, ब्राह्मण अपराधी और राजपूत अपराधियों की आपसी जंग की ख़बरें!
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दिल्ली में एक कॉस्मोपॉलिटन विश्वविद्यालय के एक छात्रावास के प्रशासन से संबद्ध था. सीवान के बचपन से 40 साल दूर.
भीमराव आंबेडकर की जयंती पर छात्रों ने एक गोष्ठी रखी, मौजूद लेकिन मुट्ठी भर छात्र ही थे. कार्यक्रम सबका नहीं था, सबने उसे अपना माना नहीं था, इसको लेकर पिछली शाम कानाफूसी और छींटाकशी भी चल रही थी, दबे स्वर में आयोजकों ने बताया. स्वर में कटुता नहीं थी.
एक छात्रा का चयन अध्यापक के रूप में हुआ. मिठाई लेकर विभाग आई थी. उसके अध्यापक और हमारे एक सहकर्मी कमरे में घुसे. चयन की सूचना मिलने पर चेहरे का रंग बदल गया.
कुछ संभलकर पूछा, ‘कोटा में हुआ है न?’ हम सब प्रश्न से हतप्रभ रह गए. ‘हां’ सुनने के बाद प्रोफेसर मित्र को राहत मिली और उन्होंने मिठाई खाई.
‘जनरल’ में अगर यह चयन होता तो किसी का हक मारा जाता, इसे लेकर आम सहमति है. इसलिए दाखिले में भी भरसक कोशिश की जाती है कि ‘कोटा वाले’ कोटा में ही रहें, जनरल में सेंध न लगा पाएं.
इसके लिए सभी पढ़े-लिखे, कानून का पालन करने वाले सभ्य जन बैठकर काफी जुगत लगाते हैं. यह समझाना कठिन है कि जनरल का अर्थ ‘उच्च जाति’ नहीं है, आरक्षण ‘उच्च जाति’ के लिए नहीं है.
‘जनरल’ का हिस्सा एससी/एसटी न मार लें, इसके लिए दाखिले के समय जातिवाद के ज़हर से खाली अध्यापकों की सन्नद्धता देखते ही बनती है.
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माहौल काफी गर्म था. तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उच्च शैक्षणिक केंद्रों में आरक्षण की घोषणा की थी. आईआईटी और एम्स में प्रतिभा की इस हत्या के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया था.
आम तौर पर शैक्षणिक केंद्रों में राजनीति का विरोधी मीडिया इस आंदोलन में रुचि ही नहीं ले रहा था, वह इसे संचालित भी कर रहा था.
इसी बीच एम्स से हमारे पास एक दलित छात्र के साथ उत्पीड़न की खबर पहुंची. नेशनल सेंटर फॉर दलित ह्यूमन राइट्स की तरफ से 5-7 लोगों की एक जांच टीम एम्स पहुंची.
हमने ज़रूरी समझा कि एम्स के निदेशक को बता दें कि हम उनके संस्थान में इस कारण आ रहे हैं. अभी हम छात्रावास पहुंचे ही थे कि उनके दफ्तर से खबर आ गई कि वे हमसे मिलना चाहते हैं.
डॉक्टर वेणुगोपाल की शोहरत का कहना ही क्या था! इससे बढ़कर सभ्यता और क्या हो सकती थी कि नागरिकों के ऐसे समूह से निदेशक खुद मिलना चाहें!
छात्रावास में दलित छात्र के कमरे के बाहर गाली-गलौज की इबारतें मिलीं. उनमें चतुराई झलकती थी. गालियां मां-बहन को लेकर थीं. जातिसूचक नहीं. फिर आप कैसे साबित करते हैं कि उत्पीड़न जाति के आधार पर किया जाता था! छात्र के अलावा दूसरे ‘जनरल’ छात्र मिले नहीं बात करने को.
हम निदेशक के पास पहुंचे. एक बड़े कॉन्फ्रेंस हॉल में हमें ले जाया गया. तुरंत वह कमरा भर गया. निदेशक सारे विभागों के अध्यक्षों, संकाध्यक्षों, रेजिडेंट डॉक्टरों के प्रतिनिधियों के साथ हॉल में आए.
हमारी छोटी-सी टीम घिर गई थी. एक के बाद एक, सबने हमें विश्वास दिलाने का पूरा प्रयास किया कि इस संस्थान के लिए जाति शब्द ही अजनबी था. वह तो अर्जुन सिंह के चलते यह ज़हर पहुंच गया है.
हम उस चतुराई को भांप गए. उनसे हमने कहा कि हम आरक्षण पर चर्चा के लिए नहीं आए हैं. एक दलित छात्र के जातीय उत्पीड़न की जांच करने आए हैं.
वह जांच हमें बीच में छोड़ देनी पड़ी. जिस छात्र की शिकायत थी, उससे मिलना, बात करना असंभव हो गया. हम हैरान थे. रिपोर्ट अधूरी पड़ी थी. हमने फिर एम्स के कुछ अध्यापकों से संपर्क किया.
उन्होंने बताया कि उस छात्र को चेतावनी दी गई है कि परिवार की बात को बाहर न ले जाए. उसे अपने करिअर पर ध्यान देना चाहिए, राजनीति नहीं करनी चाहिए.
इस तरह एम्स ने जाति-विवाद से पिंड छुड़ा लिया था.
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मैं जो जाति को नहीं जानता था, यह भी नहीं जानता था कि जाति सबको जानती है. यह सब कुछ लेकिन अभी क्यों याद आ रहा है?