पूरे मुग़ल शासन के दौरान गोरखपुर समेत विभिन्न नाथों को शासकों द्वारा तोहफे और अनुदान प्राप्त हुए हैं. आधिकारिक मंदिर साहित्य भी इस बात की पुष्टि करता है.
आज अखबार और राजनेता चाहे जैसी तस्वीर पेश करें, इतिहास के तथ्यों और प्रोपगेंडा में काफी अंतर है. इतिहास सबूतों, तथ्यों और तर्कों का इस्तेमाल करता, जबकि प्रोपगेंडा का मकसद बुनियादी सच्चाइयों तक को विकृत करना होता है.
योगी आदित्यनाथ के हालिया बयान जिसमें उन्होंने सवाल उठाया कि भारत में किसी मुगल को नायक कैसे माना जा सकता है और उनके द्वारा मुगलों के शासन की तुलना गुलामी से करने को इतिहास से विकृत करने की एक ऐसी ही कोशिश है.
योगी आदित्यनाथ ने निर्माणाधीन ‘मुगल म्यूजियम’ का नाम अतिवादी हिंदुओ के हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे चहेते प्रतीक छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर बदलने का फैसला किया है.
उनका यह सार्वजनिक फैसला हिंदुत्व के अपने अनुयायियों को निशाना बनाकर किए जाने वाले सामान्य इस्लाम विरोधी प्रोपगेंडा, और अपने समर्थकों की भावनाओं को सहलाने के लिए की जानेवाली राजनीतिक बयानबाजी- जिसे लगातार ज्यादा से ज्यादा असहिष्णु हो रहे भारत में स्वीकार कर लिया गया है- से थोड़ा बढ़कर है.
लेकिन एक तरफ जहां गोरखपुर के गोरखनाथ मठ या मंदिर परिसर के महंत आदित्यनाथ इस तरह के भड़काऊ दावे कर रहे हैं, वहीं वे सक्रिय तरीके से अपने ही संप्रदाय के इतिहास के अटूट हिस्सों को भी मिटा रहे हैं.
विडंबना है कि उनके हालिया बयान न केवल भारत के जटिल बहुधार्मिक इतिहास का अपमान करते हैं, बल्कि उनके अपने ही धार्मिक समुदाय नाथ संप्रदाय की जटिलताओं को भी सक्रिय तरीके से नजरअंदाज करने की कोशिश करते हैं.
नाथ संप्रदाय योगियों का एक विविधतापूर्ण समुदाय है, जिसे सदियों तक अनेक मुगल शासकों की सरपरस्ती मिलती रही.
निश्चित तौर पर यह आश्चर्यजनक नहीं है कि भारत के ज्यादातर लोग योगी आदित्यनाथ के दक्षिणपंथी हिंदू राजनीति और उत्तेजक बयानों से ज्यादा परिचित हैं, बजाय नाथ संप्रदाय के इतिहास के, जिसके वे एक नेता हैं.
आदित्यनाथ टीवी और हमारे ट्विटर न्यूजफीड में निरंतर खबरों में रहते हैं, जबकि नाथ योगियों का इतिहास अभिलेखों में दबा हुआ है.
लेकिन अगर हम उन अभिलेखों को पलटें और उनका अध्ययन करें, तो देख सकते हैं कि योगी आदित्यनाथ की विचारधाराएं नाथ योगियों के पूर्व-आधुनिक मान्यताओं की नुमाइंदगी नहीं करते हैं बल्कि वास्तव में अक्सर प्राक्-आधुनिक संप्रदाय के उपदेशों के ठीक उलट हैं.
नाथ योगियों पर इस्लाम का प्रभाव
नाथयोगी योगियों का एक बहुरंगी पंथ हैं, जिसका इतिहास लगभग 13वीं सदी से शुरू होता है और जिनके विश्वासों पर जैन, तांत्रिक, मुस्लिम और सिख समुदायों की छाप है.
गुरु गोरखनाथ की शिक्षाओं पर आधारित इस समुदाय ने विभिन्न प्रकार के धार्मिक समुदायों के साथ संवाद किया और अक्सर अपनी विश्वास पद्धति में उनकी शिक्षाओं को शामिल किया या उनको अपने हिसाब से नये रूप में ढाला.
हालांकि, नाथ संप्रदाय के नाम से पहचाना जाने वाला समुदाय 16वीं सदी तक पूरी तरह से संगठित नहीं हुआ, लेकिन हम काफी पहले से उनकी परंपरा के तत्वों की शिनाख्त कर सकते हैं.
इन शुरुआती नाथ योगियों और अन्य संन्यासी पंथों, खासकर मुस्लिम दरवेशों के बीच बौद्धिक संवाद के कारण इस समुदाय का इस्लामिक विचारों के प्रति एक खुलापन कायम हुआ.
गोरखनाथ की प्रतिमा. (साभार: विकीपीडिया/CC BY-SA 4.0)
आपसी संवाद के सिलसिले के कायम रहने के चलते अक्सर सूफी रहस्यवादियों और नाथ योगियों के विचार एक दूसरे पर छाते रहे.
16वीं सदी की शुरुआत तक, जो मुगलों के शासन की शुरुआत का भी वक्त है, नाथ योगी का अस्तित्व भारतीय योगमार्ग के व्यापक बहुधार्मिक समाज के एक हिस्से के तौर पर स्थापित हो चुका था, जिसकी एक ही तहजीबी जुबान थी.
उस समय के कई शास्त्रविरुद्ध धार्मिक पंथों की ही तरह नाथ संप्रदाय ने हिंदू या मुस्लिम पहचान पर जोर नहीं दिया और इसकी जगह गोरखनाथ के नाम से दिए जाने वाले अपने हिंदी उपदेशों- गोरखबानी में ईश्वर से निजी संवाद को अहमियत दी.
नाथ योगियों के मामले में, सिर्फ ईश्वर तक पहुंचना ही लक्ष्य नहीं था, बल्कि यौगिक साधना के जरिये ईश्वर से एकाकार स्थापित करना लक्ष्य था. नाथ सिद्धांत का अंतिम लक्ष्य सभी अंतर्विरोधों को पार करके पृथ्वी पर अमर ईश्वर बन जाना था.
संप्रदाय की अलख निरंजन की शिक्षा, मुस्लिम दरवेशों के साथ उनका संवाद और अपनी साधना पद्धति में अनेक इस्लामिक विधि-विधानों की स्वीकृति और इसके साथ ही अपनी यौगिक सिद्धियों या अलौकिक शक्तियों में उनके यकीन ने उन्हें कई भिन्न परिवेशों में, जिसमें मुगल और इस्लामिक परिवेश भी शामिल है, अंट जाने की इजाजत दी.
समुदाय की बहुलता और उनके संदेश के समावेशीपन, उनके द्वारा एक ऐसा संदेश देना जो हिंदू और मुस्लिम दोनों ही विधि-विधानों की इजाजत देता था, लेकिन जिसका लक्ष्य दुनियावी विभाजनों के पार जाना था, ने कई मुगल बादशाहों को प्रभावित किया.
और इतने ही महत्वपूर्ण तरीके से इसने नाथ योगियों को इन शासकों से वित्तीय मदद भी दिलाई.
पहले मुगल बादशाह बाबर ने खुद अपने बाबरनामा में लिखा है कि उसने उस समय के सबसे प्रसिद्ध नाथ केंद्रों में से एक गोरखत्री के योगियों के बारे में सुन रखा था और उस प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर जाने का ख्वाहिशमंद था.
हालांकि, मुगल बादशाह अपनी पहली यात्रा में मठ तक पहुंच पाने में असफल रहा था, लेकिन उसमें इस पवित्र स्थल, जहां काफी दूर-दूर से योगी और हिंदू आया करते थे, को देखने के लिए वापस लौटने की उत्सुकता बनी रही. वह 1519 में फिर से लौटा और उस समय मठ के नाथ योगियों को देखने में कामयाब रहा.
यद्यपि जब बाबर ने गोरखत्री की यात्रा की तो वह कोई खास आकर्षित नहीं हुआ, लेकिन इसका कारण उसने धार्मिक फर्कों को नहीं बताया है. बल्कि मुगल बादशाह ने कहा है कि वह योगियों के अव्यवस्थित और तंग घरों को देखकर निराश हुआ.
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बाबर का पोता अकबर (जिसने बाद में अपने दादा की गोरखत्री की यात्रा का ब्योरा देनेवाले चित्र बनवाए) नाथ योगियों से कहीं ज्यादा प्रभावित था.
सिर्फ गोरखत्री में नहीं, बल्कि बालनाथ टिल्ला और जखबर में- दो नाथ केंद्र जिसे उसने संरक्षण दिया.
यह अकबर- जिसकी आध्यात्मिक ग्रहणशीलता अपने आप में किंवदंती जैसी बन गई है- की छवि के अनुरूप ही है, कि वह योगियों के इस संप्रदाय को संरक्षण देने के लिए जाना जाता है और हम अकबर द्वारा बनवाए गए बाबर की गोरखत्री यात्रा को प्रदर्शित करने वाले चित्रों में यह देख सकते हैं कि मठ के प्रति अकबर की दृष्टि बाबर के वर्णन से ज्यादा उदार थी.
ये चित्र अकबर की गोरखत्री की यात्रा के बाद बनवाए गए थे और संभवतः बाबर से ज्यादा अकबर के अपने विचार को प्रकट करते हैं.
लेकिन सिर्फ इन चित्रों से ही नाथ केंद्रों- जिनकी यात्रा अकबर ने की थी- के प्रति अकबर के नजरिये का पता नहीं चलता है; उसके साथ इन यात्राओं में साथ जाने वाले लोगों के लिखित विवरणों से भी इसकी जानकारी मिलती है.
अबु फजल और जेस्यूट पादरी एंटोनियो मोनसेराति की रपटों के मुताबिक जोगीपुरा के निर्माता और अपना अलग ही पंथ दीन-ए-इलाही चलाने वाले अकबर ने 1581 में झेलम में गोरखत्री और बालनाथ टिल्ला में योगियों की संगत का आनंद उठाया था.
दोनों ही स्रोतों से यह स्पष्ट है कि अकबर ने इन केंद्रों की यात्रा की थी अैर वह इन केंद्रों के योगियों के साथ उसका गहरा संवाद कायम हुआ था.
बाद में यह भी दर्ज है कि अकबर ने बालनाथ टिल्ला को मदद-ए-मआश के तौर पर उपहार में भूमि दी थी. उपनिवेशी गजेटिरयों के मुताबिक मठ ने अकबर के लिखित नोट को 20वीं सदी की शुरुआत तक अपने पास संभाल कर रखा था.
गोरखत्री में बाबर. (साभार: ब्रिटिश म्यूजियम)
नाथ योगी और मुगल शासकों का संरक्षण
लेकिन अकबर का संरक्षण बालनाथ में नाथ योगियों के साथ ही खत्म नहीं हुआ; अपने पूरे शासनकाल में उसने अन्य नाथ केंद्रों को भी संरक्षण देना जारी रखा.
जोगीपुरा में जमा होने वाले योगियों और दरवेशों के अलावा, जिनके साथ अकबर ने संवाद किया और जिनका समर्थन किया, जखबर (झेलम के पास) के नाथ मठ को भी उल्लेखनीय संरक्षण हासिल हुआ.
हालांकि मुगलों द्वारा भूमि अनुदान और संरक्षण के दस्तावेजों को पता लगाना आज बेहद मुश्किल हो सकता है, लेकिन बीएन गोस्वामी और जेएस गरेवाल की ऐतिहासिक खोज जखबर में मुगलों की चार पीढ़ियों के संरक्षण की गवाही देती है.
यह संरक्षण अकबर से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक चला. इन दस्तावेजों के मुताबिक यह संरक्षण सबसे पहले 1571 में दिया गया, जब अकबर ने जखबर की यात्रा की थी.
अपनी चिट्ठी में उसने मंदिर के महंत योगी उदंतनाथ को भोआ गांव में दो सौ बीघा जमीन मदद-ए-मआश या अनुदान के तौर पर दी.
जब पंजाब में आनेवाली एक प्राकृतिक आपदा के कारण इस भूमि अनुदान का अस्तित्व समाप्त हो गया, तब अगले मुगल शहंशाह जहांगीर ने योगियों को एक नया फरमान जारी किया.
शहंशाह शाहजहां ने भी इस अनुदान को जारी रखा और 1642 में नाथ संप्रदाय को इतनी ही जमीन दी. और औरंगजेब को लेकर ज्यादातर लोगों के विश्वासों उलट, उसने भी अपने जीवन के एक बड़े हिस्से में नाथ योगियों को संरक्षण दिया.
दस्तावेजों से यह संकेत मिलता है बाद में औरंगजेब ने अपनी धार्मिक नीतियों को बदल दिया, लेकिन कम से अपने शासन के शुरुआती वर्षों में वह कई साम्राज्यवादी और आधुनिक इतिहासों में बनाई गई उसकी छवि से ज्यादा उदार था.
गैर-मुस्लिम संस्थानों को लेकर उसके शुरुआती रुख में जखबर में नाथ योगियों को संरक्षण देना और ज्यादा आश्चर्यजनक ढंग से योगियों के महंत आनंदनाथ के प्रति उसकी श्रद्धा शामिल है.
अपने पूर्ववर्तियों का पदचिह्नों पर चलते हुए औरंगजेब ने 1661 में आनंदनाथ से कामकाजी- अगर पूरी तरह से धार्मिक नहीं- सिलसिले से संपर्क किया.
एक चिट्ठी जिसका हवाला अक्सर दिया जाता है, के अनुसार, जिसे गोस्वामी एवं गरेवाल की मुगल्स एंड जोगीज ऑफ जखबर में पुनर्प्रस्तुत किया गया है और उस पर चर्चा की गई है, औरंगजेब ने न केवल योगियों को पारे के लिए भुगतान की पेशकश की बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि अपने शासनकाल में वह मठ को संरक्षण देना जारी रखेगा.
इस चिट्ठी में कहा गया है:
उदात्त शक्तियों के स्वामी, शिव मूरत, गुरु आनंद नाथ जीव! हे परम श्रद्धेय, उम्मीद करता हूं,
श्री शिव जीव की कृपा से आप शांतिपूर्वक और सुख के साथ होंगे!
अत्यंत गोपनीय :
परम श्रद्धेय द्वारा भेजी गई चिट्ठी दो तोला पारे के साथ प्राप्त हो गई है. लेकिन यह उतनी अच्छी नहीं है, जितनी कि परम श्रद्धेय की बातों से लगा था. (हमारी) यह इच्छा है कि परम श्रद्धेय थोड़े से और पारे का एहतियात के साथ शोधन करें और उसे बगैर कोई गैर जरूरी देरी किए हमें भेजें.
वस्त्र/लबादे के लिए कपड़े का टुकड़ा और 25 रुपये जो चढ़ावे के तौर पर भेजे गए हैं, वे (परम श्रद्धेय तक) पहुंच जाएंगे. इसके साथ ही वीर फतेहचंद को इस बारे में लिख दिया गया है कि वह हमेशा सुरक्षा का इंतजाम करे.
हमारी किसी भी सेवा की जरूरत होने पर परम श्रद्धेय हमें कभी भी लिख सकते हैं.
औरंगजेब की मुहर लगी दो और चिट्ठियां जखभर मठ में संरक्षित हैं. 1682 की तारीख वाले- यानी गैर-मुस्लिम प्रजा पर दोबारा जजिया कर लगाए जाने के बाद- दूसरे दस्तावेज में कहा गया है कि मठ को जहांगीर द्वारा जारी किए गए फरमान के अनुसार मदद-ए-मआश फिर से शुरू किया जाएगा और मंदिर के नाथ योगियों को सालाना 106 रुपये का राजस्व ‘तयशुदा तरीके से’ अदा किया जाएगा.’
गोरखपुर मठ और मुस्लिम शासक
इससे भी ज्यादा उल्लेखनीय यह है कि आदित्यनाथ का अपना गोरखपुर का अपना मठ विभिन्न मुस्लिम शासकों के साथ अपने रिश्ते को स्वीकार करता है.
ऐतिहासिक तौर पर गोरखनाथ मठ का 18वीं सदी तक मुगल शासकों के साथ काफी कम संपर्क रहा. यहां तक कि अवध के नबाव भी इसकी अवस्थिति को मुगल साम्राज्य का पिछला हिस्सा मानते थे.
गोरखत्री में योगी. (साभार: ब्रिटिश म्यूजियम)
दस्तावेजी तौर पर गोरखपुर में मुगलों की ज्यादा दिलचस्पी न होने के तथ्य ने भी गोरखनाथ मठ के आधुनिक साहित्य को मंदिर की प्राचीनता का गौरवगान करने और यह दावा करने से नहीं रोका है कि इसकी आध्यात्मिक प्रसिद्धि ने कई मुस्लिम शत्रुओं का ध्यान अपनी ओर खींचा जिन्होंने बार-बार इसकी संरचना को ध्वस्त किया.
ऐसी गलतबयानियों के बावजूद, नाथ संप्रदाय के अपने इतिहासकार और श्रद्धालु अक्षय कुमार बनर्जी इस किंवदंती के झूठे होने की संभावना के बारे में लिखते हैं.
बनर्जी बताते हैं, ‘यह काफी संभव है कि यह [गोरखनाथ मठ] की प्रकृति एक पुराने तपोबन या सभी संन्यासी योगियों के आश्रम जैसी जैसी रही हो, और हो सकता है कि वहां पुराने समय में पत्थर या ईंट की कोई पुरानी संरचना न रही हो.’
हालांकि ऐसा कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं मिलता, लेकिन कई स्रोत ये संकेत देते हैं कि गोरखपुर के नाथ योगियों ने 18वीं सदी के अंत तक कि मुगल साम्राज्य से ताल्लुल रखने वाले धनिक अभिजनों से अच्छी-खासी वित्तीय मदद हासिल होती रही हो.
जैसा कि शशांक चतुर्वेदी, डेविड गेलनर और संजय कुमार पांडेय के अध्ययनों से पता चलता है गोरखपुर के भीतर यह काफी प्रचलित मान्यता है कि जिले का गोरखनाथ मंदिर एक मुस्लिम शासक- अवध नवाब असफ-उद-दौला द्वारा दी गई जमीन पर बनाया गया था, जो नाममात्र के लिए ही सही मुगलों से संबद्ध था.
जैसा कि हमने देखा है, इस तरह का उपहार उस समय के लिए निश्चित तौर पर असामान्य नहीं था. यहां यह उल्लेखनीय है कि महंत दिग्विजयनाथ और गोरखनाथ मठ द्वारा प्रकाशित मंदिर का आधिकारिक लेखन भी इस कहानी की पुष्टि तथ्य के तौर पर करता है.
बनर्जी लिखते हैं कि अवध के एक अनाम नवाब ने गोरखपुर में योगियों को काफी जमीन और संपत्ति उस जगह पर मंदिर बनाने के लिए दी हो, जहां आज यह खड़ा है.
ये किताबें आज भी गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के अपने मठ में बिकती हैं जो इस बात का सबूत है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए मुख्यमंत्री इतिहास को तोड़-मरोड़ रहे हैं.
जबकि ये किताबें अपने आप में इस बात को सामने लाती हैं कि आधुनिक नाथ मंदिर के निर्माण में थोड़ी-बहुत मात्रा में मुगल शासन से जुड़े मुसलमान शासक के सम्मान और दानशीलता का हाथ है, योगी द्वारा पूछे गए सवाल को उलट कर पूछना जरूरी है.
मसला यह नहीं कि भारत में मुगलों को नायक कैसे माना जा सकता है- बल्कि यह है कि ऐसी व्यापक सरपरस्ती के होते हुए उन्हें नायक कैसे नहीं माना जा सकता है?
और इससे भी बढ़कर देश के मुसलमान नागरिकों की निंदा करने और उन्हें नष्ट करने के हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए योगी आदित्यनाथ किस सीमा तक जाएंगे?