राष्ट्रवाद और डंडावाद


प्रेमचंद महात्मा गांधी की आंदोलन पद्धति के मुरीद थे. सशस्त्र आतंक के ज़रिये क्रांति या मुक्ति के नारे प्रेमचंद का खून गर्म नहीं कर पाते क्योंकि वे हिंसा के इस गुण या अवगुण को पहचानते थे कि वह कभी भी शुभ परिणाम नहीं दे सकती.



‘दमन का बाज़ार गर्म है. निर्बल का एकमात्र आधार रोना है, सबल का एक मात्र आधार आंखें तरेरना. दोनों क्रियाएं आंखों से होती है: लेकिन उनमें कितना बड़ा अंतर है!


स्वेच्छाचारी सरकारों की बुनियाद पशु-बल पर होती है. …पशु-बल पर उनका अखंड विश्वास है….आखिर आंदोलन करनेवाले आदमी ही तो हैं! मार्शल लॉ से, जेलखानों में बंद करके, सरकार उन्हें चुप कर सकती है; मगर जैसा जर्मनी के प्रिंस बिस्मार्क जैसे पशुबलवादी को भी स्वीकार करना पड़ा था कि ‘संगीन से तुम चाहे जो काम ले लो; पर उसपर बैठ नहीं सकते.’


‘यों तो इंग्लैंड ने पिछले सौ सालों में बड़ी बड़ी अद्भुत चीजों का आविष्कार किया, बड़े-बड़े दार्शनिक और वैज्ञानिक तत्त्वों का निरूपण; लेकिन सबसे अद्भुत आविष्कार जो उसने हिंदुस्तानी नौकरशाही के संयोग से किया है और जो अनंतकाल तक उसके यश की पताका फहराता रहेगा, वह नीतिशास्त्र का यह चमत्कारपूर्ण, युगांतकारी आविष्कार है जिसे डंडाशास्त्र कहते हैं.


…इसने शासन विज्ञान को कितना सरल, कितना तरल बना दिया है कि इस आविष्कार के सामने डंडौत करने की इच्छा होती है. अब न क़ानून की ज़रूरत है, न व्यवस्था की, कौंसिलें और असेम्बलियां सब व्यर्थ, अदालतें और महकमे सब फिजूल.


डंडा क्या नहीं कर सकता- वह अजेय है, सर्वशक्तिमान है. बस डंडेबाजों का एक दल बना लो, पक्का,मजबूत, अटल दल. वह सारी मुश्किलों को हल कर देगा.’


‘…हमें तो इस पुलिस प्रेम से सरकार की दुर्बलता का ही प्रमाण मिलता है. वह पुलिस को हरेक प्रकार से, कायदे और न्याय की परवा न करके, उसकी नीच मनोवृत्तियों को पोषित करके, उसकी पीठ ठोंककर अपने काबू में रखना चाहती है, क्योंकि वह खूब समझ रही है, यह हाथ से गए और फिर सर्वनाश हुआ.’



लेकिन यह भी सच है कि



‘जो शक्तियां किराये के मनुष्यों पर अवलंबित होती हैं- जनता के विश्वास, प्रेम और असहयोग पर नहीं-उनका यही हाल होता है.’



और सबसे पते की बात:



‘जब राजसंस्था अपने ही कानूनों को पैरों तले रौंदना शुरू कर दे, तो उसकी दशा उस पागल-सी समझनी चाहिए, जो आप ही अपनी देह को दांतों से काटता है, आप ही अपना मांस नोचता है. ऐसा प्राणी बहुत दिन जीवित नहीं रह सकता.’



ये कठोर शब्द उसी कलम से निकले हैं जिसने ‘सेवा सदन’, ‘रंगभूमि’, निर्मला’, ‘गबन’ और ‘गोदान’ की रचना की है. ठीक है कि ये अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ हैं, लेकिन इसमें क्या कोई शक है कि प्रेमचंद को अपना पक्ष निश्चित करने में कभी, किसी भी स्थिति में दुविधा नहीं होती.


न्याय का पक्ष किसका है और सत्ता किसकी तरफ है? प्रेमचंद अपने तीक्ष्ण राजनीतिक, या नैतिक नेत्रों से पहचान लेते हैं. डंडा कितना ही मजबूत हो और डंडे चलानेवाले कितने ही हृदयहीन और पतित हों, जीत न्याय की होनी है:


‘सबसे बड़ी बात, जो हमारी विजय को निश्चित कर देती है, वह हक़ है. हम हक़ पर हैं और हक़ की हमेशा विजय होती है. यह एक अमर सत्य है.’


जीत लेकिन कब और किसकी होती है?



‘संग्राम में स्वभावतः विजय वही लाभ करता है, जिसमें दम ज़्यादा है, जो ज़्यादा देर तक मैदान में खड़े रह सकता है. जिसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है.’


असल इम्तिहान इसका है कि आंदोलन दीर्घ कैसे हो! आंदोलन को बनाए रखना ही तो सबसे बड़ी परीक्षा है. उसमें आंदोलनकारियों का उद्धतपन हानिकर ही सिद्ध होता है:


‘हमारी हार उस वक्त हो जाती है, जब हम विनय के आदर्श से गिर जाते हैं.


..हमारी जीत लोकमत की सहानुभूति पर है. जिन कामों से आप लोकमत की सहानुभूति पा सकें, वह आपके रोकड़ खाते के हैं, जिन कामों से लोकमत की सहानुभूति खो दें, वह देना खाते के हैं.


गालियां बककर या अधिकारियों के प्रति अपमान-सूचक इशारे करके आप लोकमत के विरुद्ध चले जाते हैं. वहीं आपकी हार है.’



आश्चर्य नहीं कि प्रेमचंद महात्मा गांधी की आंदोलन पद्धति के मुरीद थे. सशस्त्र आतंक के जरिये क्रांति या मुक्ति के नारे प्रेमचंद का खून गर्म नहीं कर पाते क्योंकि वे हिंसा के इस गुण या अवगुण को पहचानते थे कि वह कभी भी शुभ परिणाम नहीं दे सकती, एक स्वस्थ सहानुभूतिशील समाज का निर्माण नहीं कर सकती.


वे ‘क्रांति-क्रांति की दुहाई देकर, वक्ताओं में हिंसा का पुट देकर, जोशीले और अदूरदर्शी कार्यकर्ताओं की पीठ’ ठोंककर आग लगाने के खिलाफ थे.


गांधी ने प्रेमचंद को प्रभावित सिर्फ इसलिए नहीं कर लिया था कि उनमें उन्हें कोई संत दिख गया हो:



‘महात्माजी ने दिखा दिया है कि वह राजनीति में उतने ही कुशल हैं… . कितने ही लाल बुझक्कड़ों को महात्माजी की राजनीतिक विवेकशीलता में संदेह था. उनका ख्याल था, महात्माजी धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र के लिए ही बनाए गए हैं. वह संत हैं और राजनीति से उन्हें कोई लगाव नहीं.


राजनीति में चालें है, तिकड़मबाजी है, आंखों में धूल झोंकना है, कहना कुछ और करना कुछ है. लेकिन महात्माजी ने सिद्ध कर दिया कि वह राजनीति में भी धर्मनीति से जौ भर भी इधर-उधर नहीं होते. …उनकी राजनीति और धर्मनीति एक है.


यही कारण है कि वह समर में जितने वीर और साहसी हैं, संधि में उतने ही दूरदर्शी और दृढ़. …महात्माजी की व्यापक बुद्धि धर्म और समाज,संधि और समर में समान रूप से अपना चमत्कार दिखाती है.’



यह सारा आंदोलन किस किस्म के भारत के लिए? और उसमें बाधा क्या-क्या थी? एक बाधा जाति की थी और दूसरी सांप्रदायिकता की.


प्रेमचंद इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हिंदुओं को ही मानते थे. मुसलमानों को भय था कि ‘स्वराज्य में हिंदू बहुमत उसे पीस डालेगा.’ आशंका निर्मूल न थी:


‘इसे स्वीकार में हमें कोई आपत्ति होनी चाहिए कि मुसलिम भाइयों की यह शंका और अविश्वास केवल दुराग्रह के कारण नहीं है. उसका कारण वह भेदभाव, वह छूत-विचार, वह पृथकता है, जो दुर्भाग्य से पूरे जोर से राज कर रही है.’



‘…यह भेदभाव का भूत उसके सिर पर हजारों बरस से सवार है, जो अपने स्वधर्मियों से भी उतना ही पृथक रखे हुए है, जितना अन्य धर्मवालों से.’



भेदभाव, ऊंच-नीच का यह दर्शन हिंदू जीवन पद्धति को निर्देशित करता है और देश को अलग-अलग टुकड़ों में बांट देता है:



‘हिंदू इस भिन्नता को समझता है और उसे इसे सहने की आदत पड़ी हुई है, वह किसी वर्ग का हो. उसे भी किसी न किसी को अछूत समझने का गौरव मिल ही जाता है…’



क्या ताज्जुब कि हिंदुओं में जिन्हें निम्नतम धरातल पर रखा जाता हो, वे भी इस भेदभाव के दर्शन के अनुरूप मुसलमानों से खुद को ऊंचा समझकर गौरव की हिंसा का आनंद लेते हों. जो हो, मुसलमान



‘यही जानता है कि हिंदू उसे नीचा समझते हैं और यह कोई भी आत्म-सम्मान रखने वाली जाति सह नहीं सकती, ऐसे विचारों के रखते हुए कोई राष्ट्र बन नहीं सकता और अगर कुछ दिन के लिए बन भी जाए, तो टिक नहीं सकता.’



इसी कारण महात्माजी ने जितना अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में ताकत लगाई उससे कहीं ज्यादा जातिभेद के खिलाफ और हिंदू-मुसलमान दुराव दूर करने के लिए.


इसी वजह से महात्मा गांधी का आजादी का आंदोलन स्वराज प्राप्ति का अभियान था. वह श्रेष्ठता की ग्रंथि से खुद को मुक्त करने की महत्त्वाकांक्षा भी थी.


प्रेमचंद को राष्ट्रवाद में निहित इस श्रेष्ठता ग्रंथि के खतरे का अंदाज था. जब तक राष्ट्र एक दूसरे से अपनेपन, एक दूसरे के लिए जिम्मेदारी के भाव को दृढ़ करने का साधन हो, तब तक तो वह शुभ है लेकिन वह प्रायः विस्तार और वर्चस्व की हिंसा को ही जन्म देता है.


भारत में जाति के रूप में श्रेष्ठता और हीनता को प्राकृतिक माना जाता रहा है, इसलिए यहां राष्ट्रवाद इस जातिभावना से मिलकर और भी विषैला हो जा सकता है.


इसीलिए प्रेमचंद जैनेन्द्र कुमार के शांतिनिकेतन भ्रमण के वर्णन को, जो उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी और पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के साथ किया था, ज्यों का त्यों और समर्थनपूर्वक प्रकाशित करते हैं:



‘रवीन्द्रबाबू …का एक संदेश है. उस संदेश को सुनने की प्रवृत्ति और मनःस्थिति गुलाम भारत में आज न हो, फिर भी वह संदेश अत्यंत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है. हम बड़ी जल्दी अपने को सांप्रदायिकता और पंथों में जकड़ लेते हैं. यह ‘परे रह’ की प्रवृत्ति जीवन के लिए घातक है.


राष्ट्रीयता बड़ी आसानी से एक पंथ-सी बन जा सकती है. इसके विरुद्ध प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक रहना आवश्यक है. सांप्रदायिकता से राष्ट्रीयता विशद चीज़ है, पर राष्ट्रीयता पर आकर आदमी के उत्कर्ष की परिधि नहीं आ जाती- इस बात की चेतावनी महात्मा गांधी के बाद रवीन्द्र के कार्य और रवीन्द्र की रचनाओं द्वारा व्यक्ति को संबसे अधिक मिलती है.’



टिप्पणियाँ
Popular posts
परमपिता परमेश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दें, उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें व समस्त परिजनों व समाज को इस दुख की घड़ी में उनका वियोग सहने की शक्ति प्रदान करें-व्यापारी सुरक्षा फोरम
चित्र
World Food Day 2024: कब भूखमरी एवं भूखें लोगों की दुनिया से निजात मिलेगी?
चित्र
योगी सरकार का बड़ा कदम, एआई सीसीटीवी से अभेद्य होगी महाकुंभ की सुरक्षा व्यवस्था
चित्र
प्रथम पहल फाउंडेशन शीघ्र ही मल्टी स्पेशलिस्ट हॉस्पिटल बनाएगा
चित्र
दिवाली पर बिल्ली का दिखना होता है शुभ, जानिए ये जानवर दिखने पर होता है क्या