जिस तरह कोरोना संक्रमण को काबू करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन पर मोदी सरकार ने कोई तैयारी नहीं की थी, उसी तरह टीकाकरण पर भी उसके पास कोई मुकम्मल रोडमैप नहीं है.
नए कृषि कानूनों के खिलाफ मोदी सरकार की छाती पर चढ़ बैठे किसानों के गुस्से से बचने का इससे मुफीद रास्ता और कुछ नहीं हो सकता था, सो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सधी रणनीति के तहत एक के बाद एक कोरोना की वैक्सीन बनाने में जुटीं तीन कंपनियों की तैयारियों का जायजा लिया.
दूसरे दौर में तीन और कंपनियों के कर्ता-धर्ताओं से ऑनलाइन बात की और फिर इसके बाद राज्यों के मुख्यमंत्रियों से उनकी तैयारियों का जायजा लेने के लिए मीटिंग का ऐलान कर दिया.
लिहाजा, जो मीडिया राशन-पानी लेकर दिल्ली की सरहद पर आ बैठे किसानों की घेराबंदी की कवरेज में जुटा था, उसे तुरंत अपना फोकस कोविड-19 के टीके की तैयारियों का जायजा ले रहे प्रधानमंत्री की ओर करना पड़ा.
लेकिन तैयारियों का ताबड़तोड़ जायजा लेने के बाद भी प्रधानमंत्री देश के लोगों को कोरोना वैक्सीन मुहैया कराने के सवाल पर कोई ठोस जवाब नहीं दे सके. उन्होंने वही ‘छायावादी’ बातें कहीं, जो खुद वह और उनके मंत्री पहले से कहते आ रहे हैं.
मसलन, वैक्सीन आई तो सबको मिलेगी. सबसे पहले यह कोरोना से अग्रिम मोर्चे पर जूझ रहे डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिसकर्मियों और राहतकर्मियों को दी जाएगी. हम टीकाकरण के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बना रहे हैं. हमारे एक्सपर्ट तैयारी में लगे हैं, वगैरह-वगैरह.
लेकिन इसके दो दिन बाद ही स्वास्थ्य सचिव ने कहा कि हो सकता है कि हम पूरी आबादी का टीकाकरण न करें.
इसने साफ कर दिया कि जिस तरह कोरोना संक्रमण को काबू करने के लिए लगाए गए लॉकडाउन पर मोदी सरकार ने कोई तैयारी नहीं की थी, उसी तरह टीकाकरण पर भी इसके पास कोई मुकम्मल रोडमैप नहीं है.
अगर जरूरत पड़ी तो प्रधानमंत्री टीकाकरण को भी एक इवेंट मैनेजमेंट में बदलने से गुरेज नहीं करेंगे. कोरोना वैक्सीन की तैयारियों के जायजे को प्रचार अभियान में तब्दील करने की उनकी रणनीति इसी ओर इशारा कर रही है.
फार्मा कंपनियों को नसीहत लेकिन अपनी नीति साफ नहीं
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि फार्मा कंपनियों को साफ और सरल भाषा में आम लोगों को कोविड वैक्सीन के बारे में बताना चाहिए. लेकिन खुद उनकी सरकार की तैयारी कितनी है, इस बारे में वह जनता से चर्चा करने या इसे बताने में हिचकिचा रहे हैं.
टीकाकरण को लेकर जो सवाल लोगों के जेहन में तैर रहे हैं, उसकी लंबी फेहरिस्त है. मसलन, सरकार टीकाकरण पर कितना खर्च करेगी? यह पैसा कहां से आएगा? क्या सरकार यह टीका सबको मुफ्त में देगी?
अगर टीका सबको मुफ्त में नहीं मिलेगा तो फिर फ्री टीकाकरण किनका होगा? क्या सारा पैसा केंद्र सरकार देगी या फिर राज्यों में इसमें हिस्सा बंटाने को कहा जाएगा?
द वायर में छपे एक लेख के मुताबिक टीकाकरण पर कुल 70 हजार करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय का कुल बजट ही लगभग 69 हजार करोड़ रुपये का है. आखिर पैसा कहां से जुटाया जाएगाय़
क्या सरकार उन कॉरपोरेट कंपनियों को अपने खर्च पर कर्मचारियों के टीकाकरण के लिए कह सकती है, जिन्हें उसने कोरोना के बाद टैक्स इन्सेंटिव दिए हैं.
केंद्र सरकार के रुख से ऐसा लगता है कि वह राज्यों पर इसका खर्चा लादना चाहती है लेकिन उनकी वित्तीय स्थिति पहले ही चरमराई हुई है. इस बारे में भी केंद्र ने कोई साफ तस्वीर पेश नहीं की है.
टीकाकरण की चुनौतियों पर चर्चा करने से कतराना क्यों?
भारत का टीकाकरण तंत्र काफी बड़ा है और इसके पास विशाल आबादी के लिए ऐसा कार्यक्रम चलाने का अनुभव भी है. यह भी सच है कि दुनिया की 60 फीसदी वैक्सीन भी यहीं तैयार होती है.
सरकार ने पहले दौर में लगभग 50 करोड़ डोज का इस्तेमाल करके 2021 के जुलाई महीने तक 25 करोड़ लोगों के टीकाकरण का मंसूबा बांध रखा है, लेकिन क्या टीकाकरण में आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए वह तैयार है?
ये चुनौतियों कई मोर्चों पर हैं. मोदी सरकार को चाहिए कि वह सार्वजनिक मंच पर इन्हें साझा करे और बताए कि इनसे निपटने के लिए उसके पास क्या तैयारियां हैं.
पहली चुनौती है टीकाकरण के लिए सही आबादी के चयन का. यह सवाल बड़ा पेचीदा है कि आखिर सबसे पहले टीका किसे दिया जाए.
इसमें कोई शक नहीं कि डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल और पुलिसकर्मी समेत तमाम फ्रंटलाइन वर्कर प्राथमिकता में होने चाहिए.
इसके बाद बुजुर्गों और शारीरिक रूप से अशक्त लोगों को टीका लगाने की दलील दी जा रही है. लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि युवाओं के टीकाकरण को प्राथमिकता मिलनी चाहिए.
युवा हमारी वर्कफोर्स का सबसे बड़ा हिस्सा हैं. इस वक्त अर्थव्यवस्था जिस तरह औंधे मुंह गिरी हुई है, उसमें इस आबादी का टीकाकरण बेहद अहम हो जाता है.
ग्रामीण इलाकों में टीकाकरण की रणनीति क्या होगी?
दूसरी बड़ी चुनौती है ग्रामीण इलाकों में टीकाकरण की. भारत का टीकाकरण कार्यक्रम लगभग 42 साल पुराना है.
इस लिहाज से देखें, तो शहरों में टीकाकरण के लिए मेडिकलकर्मी, कोल्ड चेन और दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर का तो कामयाब मैनेजमेंट संभव है लेकिन बड़ी चिंता ग्रामीण इलाकों को लेकर है.
ग्रामीण इलाकों की चुनौतियों से सरकार कैसे निपटेगी इस पर उसने चुप्पी साध रखी है. टीकाकरण प्रोग्राम के दौरान सेंटरों पर उमड़ने वाली भीड़ भी एक बड़ा खतरा है.
दुनिया के कई देशों में टीकाकरण सेंटरों से बड़े पैमाने पर संक्रमण बढ़ने के मामले सामने आ चुके हैं. घनी आबादी वाले भारत जैसे देश में ऐसे संक्रमण को रोकना बहुत मुश्किल हो सकता है.
जहां तक लॉजिस्टिक का सवाल है तो डिस्पोजेबल सुइयां एक बड़ी जरूरत है. सरकार को यह साफ करना चाहिए कि क्या ऐसी सुइयों की जरूरत हम पूरी कर पाएंगे. क्या हमारे पास इतने बड़े पैमाने पर डिस्पोजल सुइयों के निर्माण की क्षमता है क्योंकि इसके बगैर बड़े पैमाने पर एचआईवी और दूसरी तरह की बीमारियों का संक्रमण फैल सकता है.
अब तक पोलियो जैसे टीकाकरण कार्यक्रम इसलिए सफल रहे हैं कि इसकी दवाई ओरल ड्रॉप के जरिये दी जाती है. लेकिन जहां सुइयों का इस्तेमाल होगा वहां यह सुनिश्चित करना होगा कि संक्रमण न फैले.
अधूरे कोल्ड चेन के भरोसे कहां तक?
कोल्ड चेन के मामले में भी हमारी स्थिति कमजोर है. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों का कहना है इस वक्त देश में कोल्ड चेन के लिए जो खर्च किया जा रहा है इसका दस गुना खर्च करना होगा.
कोल्ड चेन बनाने वाली एक बड़ी कंपनी स्नोमैन लॉजिस्टिक्स लिमिटेड के सीईओ सुनील नैयर ने ब्लूमबर्गक्विंट को हाल में बताया था कि देश की मौजूदा कोल्ड चेन क्षमता के बूते सिर्फ 20 से 25 फीसदी टीके की ही डिलीवरी संभव है, लेकिन सरकारी हलकों में इन सारी चुनौतियों से जुड़े विमर्श गायब हैं.
सरकार देश की जनता के सामने न तो इन चुनौतियों से जूझने की रणनीति का खुलासा करना चाहती है और न ही इन सवालों पर सार्वजनिक बहस चलाना चाहती है.
अपने भाषणों में बात-बात पर लोगों से हामी भरवाने वाले प्रधानमंत्री टीकाकरण पर लोगों की राय जानने से क्यों कतरा रहे हैं? क्या नोटबंदी और तालाबंदी की तरह ही कोरोना टीकाकरण प्रोग्राम भी प्रधानमंत्री का ‘वन मैन शो’ साबित होने जा रहा है?
देश ऐसे शो के खतरे झेल चुका है. अब इसके भीतर और खतरे झेलने की ताकत नहीं है.