सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन कृषि क़ानूनों पर केंद्र और किसानों के बीच गतिरोध दूर करने के उद्देश्य से बनाई गई समिति में कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, प्रमोद कुमार जोशी, शेतकारी संगठन के अनिल घनवट और भारतीय किसान यूनियन के भूपेंद्र सिंह मान शामिल हैं. किसानों ने इन्हें सरकार समर्थक बताते हुए विरोध जारी रखने की बात कही है. इस बीच भूपेंद्र सिंह मान ने ख़ुद को समिति से अलग कर लिया है.
नई दिल्लीः दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे किसानों को वहां से हटाने की कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए बीते 12 जनवरी को चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अगले आदेश तक तीनों कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी है.
हालांकि, अदालत ने गतिरोध को दूर करने के लिए एक समिति का गठन करके विरोध कर रहे लाखों किसानों के विरुद्ध केंद्र सरकार को स्पष्ट रूप से एक लाभप्रद स्थिति में डाल दिया है, क्योंकि इस समिति में सिर्फ वही विशेषज्ञ शामिल हैं, जो इन कानूनों का खुलकर समर्थन करते रहे हैं.
इस समिति का गठन स्पष्ट रूप से प्रदर्शन कर रहे सभी किसान यूनियनों के संयुक्त संगठन ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ के प्रतिकूल है.
संयुक्त किसान मोर्चा ने समिति के समक्ष जाने को लेकर असहमति जताई है और इसके बजाए कानूनों को रद्द करने की अपनी मूल मांग पर अड़े हुए हैं. किसानों ने कहा है कि वे इस समिति के सामने पेश नहीं होंगे. सुप्रीम कोर्ट की समिति के सदस्य सरकार के समर्थक है, जो इन कानूनों के पक्षधर हैं.
इस फैसले के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने किसान आंदोलन से सही तरह से नहीं निपटने के लिए केंद्र सरकार को फटकार भी लगाई थी.
सुप्रीम कोर्ट की समिति के चार सदस्य बाजार समर्थक कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, प्रमोद कुमार जोशी, शेतकारी संगठन के अनिल घनवट और भारतीय किसान यूनियन के एक धड़े के नेता भूपिंदर सिंह मान होंगे.
घनवट और मान ने हमेशा से कृषि व्यापार में निजी, कॉरपोरेट की अगुवाई वाले बाजारों का ही समर्थन किया है. हालांकि गुरुवार को भूपिंदर सिंह मान ने इस समिति से शामिल होने से इनकार कर दिया है.
समिति के इन चारों सदस्यों की किसान आंदोलन और इन कृषि कानूनों पर किस तरह की प्रतिक्रिया रही है, उससे सुप्रीम कोर्ट द्वारा समिति के लिए उनके चुनाव पर तस्वीर कुछ साफ होती है:
अशोक गुलाटी
देश के प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेस (सीएसीपी) के चेयरमैन हैं. यह संस्था केंद्र सरकार को खाद्य आपूर्ति और कीमत के विषयों पर राय देती है. उन्होंने पूर्व में भी कई सरकारों के साथ काम किया है और विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर काम किया है. उन्होंने इसके साथ ही खाद्यान्न के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
हालांकि, उन्हें भारतीय कृषि व्यापार में मुक्त बाजार सुधारों का हितैषी माना जाता है और वह देश में अनियमित कृषि बाजार की वकालत करते हैं. वह साल 2015 में कृषि पर नीति आयोग की टास्कफोर्स के सदस्य भी रह चुके हैं और कृषि बाजार सुधारों में विशेषज्ञ समूह के चेयरमैन भी रह चुके हैं.
नए कृषि कानूनों से बड़े कॉरपोरेट के सामने किसानों की सौदेबाजी करने की ताकत कम होने, एमएसपी व्यवस्था के कमजोर होने और अपनी ही जमीनों पर स्वायत्तता खत्म होने के किसान यूनियन के रुख को खारिज करते हुए गुलाटी ने केंद्र सरकार का समर्थन किया था. गुलाटी ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने लेख में कहा था:
उन्होंने कृषि कानूनों को लेकर किसानों को गुमराह करने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराया था.
प्रमोद कुमार जोशी
जोशी भी मुक्त बाजार के हितैषी अर्थशास्त्रियों में से एक हैं और कृषि कानूनों का समर्थन करते रहे हैं. वह प्रौद्योगिकी नीति, बाजार और संस्थागत अर्थशास्त्र के क्षेत्र में काम कर रहे हैं और वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के दक्षिण एशिया के निदेशक हैं.
वह हैदराबाद में राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रबंधन अकादमी के निदेशक रहे हैं. उन्होंने विश्व बैंक के कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास के अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन पर अंतर सरकारी पैनल के सदस्य के रूप में भी काम किया है.
सितंबर 2020 में जब किसानों ने कृषि कानूनों के विरोध में अपना प्रदर्शन शुरू किया था. उन्होंने वरिष्ठ नौकरशाह अरविंद के. पढी के साथ एक संयुक्त लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने केंद्र के कृषि कानूनों का समर्थन किया था. दोनों ने फाइनेंशियल एक्सप्रेस में लेख लिखा था, जिसमें कहा गया:
अनिल घनवट
अनिल घनवट पहले किसान नेता थे, जिन्होंने खुले तौर पर कृषि कानूनों का समर्थन किया था, जबकि अधिकतर किसान यूनियन देश के अलग-अलग हिस्सों में इन कानूनों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे.
घनवट महाराष्ट्र में एक किसान यूनियन शेतकारी संगठन का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसकी स्थापना शरद जोशी ने की थी. यह संगठन ऐतिहासिक रूप से कृषि बाजारों को खोलने और कृषि उत्पाद विपणन समितियों (एपीएमसी) जैसी संस्थाओं को कमजोर करने की पैरवी करता है. हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक एक्सप्लेनर में कहा गया है:
घनवट ने कहा है कि नए कानून किसानों के लिए वित्तीय स्वतंत्रता लाएंगे. उन्होंने कहा कि नए कानून एपीएमसी की शक्तियों को सीमित करते हैं और इससे ग्रामीण इलाकों में और निवेश होगा और कृषि आधारित उद्यमों को प्रोत्साहन मिलेगा.
उन्होंने अगले उदाहरण में अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा है, सरकार कानूनों के क्रियान्वन पर रोक लगा सकती है और किसानों के साथ चर्चा के बाद कानूनों में संशोधन कर सकती है. हालांकि, इन कानूनों को वापस लिए जाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इससे किसानों के लिए अवसर खुले हैं.
भूपिंदर सिंह मान
संयुक्त किसान मोर्चा में भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) के विभिन्न धड़ों सहित कई अलग-अलग मोर्चे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति के लिए भूपिंदर सिंह मान का चुनाव किया, जो बीकेयू के ही एक धड़े के नेता हैं और नए कृषि कानूनों का लगातार समर्थन करते रहे हैं. हालांकि आज (14 जनवरी को) उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की इस समिति में शामिल न होने की बात कही है.
मान के नेतृत्व की वजह से इन तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग के बीच बीकेयू को अपना रुख बदलकर नए संशोधन लाने और सरकार के साथ बातचीत करने का रुख अपनाना पड़ा.
मान पूर्व राज्यसभा सांसद हैं. वह नवगठित अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति (एआईकेसीसी) की अध्यक्षता करते हैं. इस समिति का गठन शरद जोशी और द्वारा किया गया था.
बता दें कि दिसंबर में मान ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मुलाकात कर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा था, जिसमें तीनों कानूनों को लागू किए जाने की मांग की गई थी.
मान ने केंद्रीय मंत्री को ज्ञापन सौंपे जाने के बाद द हिंदू को बताया था, कृषि को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सुधारों की जरूरत है. किसानों की सुरक्षा भी आवश्यक है और विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए.
दिलचस्प यह है कि एआईकेसीसी ने ज्ञापन उस समय सौंपा था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ ने भी समान संशोधन की मांग करनी शुरू की थी. ये मांगें अधिकतर सरकार समर्थित किसान यूनियनों द्वारा सामने रखी गई थीं. इसी समय सरकार ने भी इनमें से कुछ मांगों पर विचार करने की इच्छा जताई थी और किसानों के समक्ष प्रस्ताव रखे थे.
समिति के सदस्यों के सरकार समर्थक होने पर तमाम लोगों ने प्रतिक्रियाएं व्यक्त की थीं.
मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के अर्थशास्त्री और प्रोफेसर आर. रामकुमार ने समिति के सदस्यों के तौर पर नामों के ऐलान के बाद कहा था, ‘इस तरह की समिति बनाने का क्या मतलब है? किसी भी वास्तविक किसान समूह को उनसे बातचीत में दिलचस्पी क्यों लेनी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने विरोध कर रहे किसानों को समिति का बहिष्कार करने का खुद ही एक बढ़िया कारण दे दिया गया है.’
कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने ट्वीट कर कहा था, ‘सुप्रीम कोर्ट ने गतिरोध समाप्त करने के लिए समिति का गठन किया है. इसे देखकर मुझे गालिब का कहा याद आता है, क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूं, मैं जानता हूं जो वो लिखेंगे जवाब में.’