बजट 2021: मैला ढोने वालों के पुनर्वास फंड में 73 फीसदी की कटौती

मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए पिछले साल 110 करोड़ रुपये का बजट आवंटित हुआ था, लेकिन अब इसे कम करके 30 करोड़ रुपये कर दिया गया है. केंद्र ने ये कदम ऐसे समय पर उठाया है जब मैला ढोने वालों की संख्या तीन गुना बढ़ गई है.

(फोटो: जाह्नवी सेन/द वायर)

(फोटो: जाह्नवी सेन/द वायर)

नई दिल्ली: मैला ढोने वालों (मैनुअल स्कैवेंजर्स) के पुनर्वास के लिए चलाई जा रही योजना के बजट में करीब 73 फीसदी की कटौती की गई है.

पिछले साल वित्त वर्ष 2020-21 के लिए इस योजना के तहत 110 करोड़ रुपये का आवंटन किया था. लेकिन अब इसमें कटौती (संशोधित) करते हुए इसे 30 करोड़ रुपये कर दिया गया है. यह आवंटित राशि की तुलना में 72.72 फीसदी कम है.

इसके अलावा आगामी वित्त वर्ष 2021-22 के लिए इस योजना का बजट 100 करोड़ रुपये रखा गया है, जो पिछले साल की तुलना में कम है.

गौरतलब है कि मैला ढोने वालों का पुनर्वास सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ‘मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना’ (एसआरएमएस) के तहत किया जाता है. इसे लागू करने का काम मंत्रालय की संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाईनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसकेएफडीसी) को दिया गया है.

खास बात ये है कि वित्त मंत्रालय ने ऐसे समय पर इस योजना के बजट में कटौती की है जब मैला ढोने वालों की संख्या में कम से कम तीन गुना बढ़ोतरी हुई है.

साल 2018-19 के दौरान एनएसकेएफडीसी द्वारा कराए गए एक सर्वे में 42,303 नए मैनुअल स्कैवेंजर्स की पहचान की गई थी. ये लोग देश के 14 राज्यों के 86 जिलों के रहने वाले हैं.

ये आंकड़ा साल 2013 में कराए गए पिछले सर्वे के मुकाबले करीब तीन गुना अधिक है. उस समय 13 राज्यों में सर्वे कराए गए थे, जिसमें 14,505 मैनुअल स्कैवेंजर्स की पहचान की गई थी.

इस तरह दोनों सर्वे को मिलाकर देश में कम से कम 56,808 लोग मैला ढोने का काम कर रहे हैं. इसमें से करीब 70 फीसदी से भी ज्यादा महिलाएं हैं.

इस तरह के सर्वेक्षण के पीठ सरकार का प्रमुख मकसद ये था कि मैला ढोने वालों की पहचान करके उनका जल्द से जल्द पुनर्वास किया जाए, ताकि पूरी तरह से प्रतिबंधित इस कार्य को खत्म किया जा सके.

हालांकि बीते सोमवार को पेश किए गए बजट के आंकड़े सरकार के दावों पर सवालिया निशान खड़े करते हैं.

कई महीनों तक कोई फंड जारी नहीं हुआ

सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए पिछले बजट में से करीब छह महीने तक कोई फंड जारी नहीं हुआ था.

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री रामदास अठावले द्वारा 20 सितंबर 2020 को लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिए 15.09.2020 तक कोई भी फंड जारी नहीं किया गया था, जबकि इसके लिए 110 करोड़ रुपये आवंटित था.

इसके पिछले साल 2019-20 के दौरान भी 110 करोड़ रुपये का फंड आवंटित किया गया था, लेकिन मंत्रालय ने 84.80 करोड़ रुपये ही जारी किया. वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान सबसे कम पांच करोड़ रुपये का आवंटन हुआ था, जिसके कारण सरकार को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.

बता दें कि एसआरएमएस योजना के तहत मुख्य रूप से तीन तरीके से मैला ढोने वालों का पुनर्वास किया जाता है.

इसमें ‘एक बार नकदी सहायता’ के तहत मैला ढोने वाले परिवार के किसी एक व्यक्ति को एक बार 40,000 रुपये दिया जाता है. इसके बाद सरकार मानती है कि उनका पुनर्वास कर दिया गया है.

इसके अलावा मैला ढोने वालों को प्रशिक्षण देकर उनका पुनर्वास किया जाता है. इसके तहत प्रति माह 3,000 रुपये के साथ दो साल तक कौशल विकास प्रशिक्षण दिया जाता है.

इसी तरह स्व-रोजगार के लिए एक निश्चित राशि (3.25 लाख रुपये) तक के लोन पर मैला ढोने वालों को सब्सिडी देने का प्रावधान है.

भारत सरकार द्वारा संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक साल 2020-21 में 15 सितंबर तक 13,990 मैनुअल स्कैवेंजर्स को 40,000 रुपये की नकद सहायता दी गई थी. हालांकि इस दौरान किसी को भी स्किल डेवलपमेंट की ट्रेडिंग नहीं दी गई.

इसके अलावा 30 लोगों को लोन पर सब्सिडी देने के प्रावधान से लाभान्वित किया गया.

इस तरह साल 2017-18 के दौरान 1171, 2018-19 के दौरान 18079 और 2019-20 के दौरान 13,246 लोगों को एसआरएमएस योजना के तहत ‘एक बार नकदी सहायता’ दी गई है.

वहीं 2017-18 में 334, 2018-19 में 1682 और 2019-20 में 2532 मैनुअल स्कैवेंजर्स को स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग दी गई थी.

मैला ढोने पर है प्रतिबंध, फिर भी ये जारी

मालूम हो कि देश में पहली बार 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से बैन लगाया गया. हालांकि आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है.

कानून में प्रावधान है कि अगर कोई मैला ढोने का काम कराता है तो उसे सजा दी जाएगी, लेकिन केंद्र सरकार खुद ये स्वीकार करती है कि उन्हें इस संबंध में किसी को भी सजा दिए जाने की कोई जानकारी नहीं है.

इस दिशा में कार्य कर रहे लोगों का आरोप है कि कई राज्य सरकारें जानबूझकर ये स्वीकार नहीं कर रही है कि उनके यहां अभी तक मैला ढोने की प्रथा चल रही है.

साल 2018 के सर्वे के दौरान 18 राज्यों में 170 जिलों के 87,913 लोगों खुद को मैनुअल स्कैवेंजर बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था. लेकिन स्थानीय प्रशासन ने इन्हें मैला ढोने वाला मानने से इनकार कर दिया. नतीजन सरकार ने सिर्फ 42,303 लोगों की ही मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में पहचान की.

इसमें से चार राज्यों बिहार, हरियाणा, जम्मू कश्मीर (अब केंद्रशासित प्रदेश) और तेलंगाना ने दावा किया कि उनके यहां एक भी मैला ढोने वाले व्यक्ति नहीं हैं.

जबकि बिहार में 4,757, हरियाणा में 1,221, जम्मू कश्मीर में 254 और तेलंगाना में 288 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर्स बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था.

ध्यान रहे कि इस सर्वे का दायरा भी काफी छोटा था, जिसमें सभी राज्यों के सभी जिलों को शामिल नहीं किया गया है.

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