ग्राउंड रिपोर्ट: दिल्ली की केजरीवाल सरकार का दावा है कि पिछले साल फरवरी महीने में हुए सांप्रदायिक दंगे के पीड़ितों को उचित मुआवज़ा दिया है, हालांकि कई घायलों का कहना कि उन्हें गंभीर चोटें लगने के बावजूद कम मुआवज़ा दिया गया है.
नई दिल्ली: साल 2020 के फरवरी महीने में हुए उत्तर पूर्वी दिल्ली के सांप्रदायिक दंगे के दौरान पुलिस का सबसे वीभत्स चेहरा उस समय सामने आया, जब एक वीडियो वायरल हुई जिसमें पुलिस वाले पांच मुस्लिमों को पीटते हुए राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर कर रहे थे.
इस घटना के कुछ ही घंटे के बाद एक युवक फैजान की मौत हो गई थी और बाकी के चार लोगों के दिमाग में हमेशा के लिए एक भयावह मंजर छूट गया, जो उन्हें हर समय परेशान करता रहता है.
वीडियो में इन्हें घेरकर कम से कम सात पुलिसकर्मी खड़े नजर आ रहे हैं, लेकिन एक साल बाद भी प्रशासन का कहना है कि वे ‘इनकी पहचान करने की कोशिश रहे हैं.’
पीड़ितों से पूछने पर एक तरह का जवाब मिलता है, ‘पुलिस ऑफिसों के चक्कर काट-काटकर हम थक गए हैं, हमारी कोई सुनता नहीं है, वे बस टालते रहते हैं.’
मोहम्मद रफीक अब उस दिन को याद नहीं करना चाहते हैं. वे नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं कि न तो मीडिया ही उनकी कहानी को सही से बताता है और न ही दिल्ली की केजरीवाल सरकार उनकी मदद कर रही है.
उन्होंने कहा, ‘जो हुआ, सो हुआ. अब इन लफड़ों में नहीं पड़ना चाहता हूं. मुआवजा मिले या ना मिले, मुझे कोई मतलब नहीं है. मैं शांति से दो वक्त की रोटी कमाकर खाना चाहता हूं. मुझे पता है कि अब कुछ नहीं मिलेगा, इसलिए कुछ नहीं करना चाहता. मैंने बहुत कोशिश कर ली, बहुत सुन लिया, मैंने दो लाख रुपये की मांग की थी, लेकिन बस 20,000 रुपये ही मिला है.’
दिल्ली सरकार ने दंगे के दौरान पीड़ितों को आईं हल्की चोटों के लिए 20 हजार रुपये और गंभीर चोटों के लिए दो लाख रुपये के मुआवज़े की घोषणा की थी. प्रशासन ने रफीक की चोटों को ‘हल्की चोट’ की श्रेणी में माना है.
वे कहते हैं, ‘हमें जानवरों की तरह पीटा गया था. शरीर के हर जगह लाठियों के निशान थे, सिर पर भी चोटें आई थीं. इलाज कराने में लाखों रुपये खर्च हो गए. प्रशासन ने कहा था कि हमें और मुआवजा मिलेगा, लेकिन कुछ नहीं हुआ. मैं अब ये सब भूल जाना चाहता हूं.’
कर्दमपुरी के रहने वाले रफीक इस समय गाजियाबाद के ट्रोनिका सिटी में सिलाई का काम करते हैं.
वीडियो में रफीक के साथ दिख रहे एक अन्य युवक मोहम्मद वसीम को भी सरकार ने 20 हजार रुपये का ही मुआवजा दिया है. वसीम के पिता अताउल्ला सरकार के इस रवैये से काफी दुखी हैं और कहते हैं कि ये सरासर अन्याय है.
उन्होंने कहा, ‘पहले तो जीटीबी अस्पताल में सही से इलाज नहीं हुआ, हमने प्राइवेट में इलाज कराया था, करीब 50 हजार तो तभी खर्च हो गए थे. इसके बाद लॉकडाउन लग गया, तो हमें घर पर डॉक्टर बुलाकर इलाज कराना पड़ता था. सिर पर, पूरे शरीर पर डंडों से पीटने और खून के निशान थे. अभी भी वसीम को बहुत ज्यादा तकलीफ रहती है. एक साल बाद वो किसी तरह काम शुरू कर पाया है.’
हालांकि सरकार की ओर से इसी समूह के एक अन्य व्यक्ति कौसर अली को दो लाख रुपये का मुआवजा मिला है और फैजान की मौत के बाद उनकी मां को 10 लाख रुपये का मुआवजा मिला था.
मौजपुर चौक की रेड लाइट से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक गली में चार मंजिला इमारत के सबसे ऊपरी मंजिल पर राजेश पाल का एक कमरा है, जिसमें वे पिछले करीब 15 सालों से किराए पर रह रहे हैं. कमरा काफी छोटा होने के चलते उनकी पत्नी बाल्कनी में खाना बनाती हैं, जिसमें सिर्फ एक व्यक्ति के ही खड़े होने की जगह है.
आजकल पाल के चेहरे पर हर पल मायूसी छाई रहती है, डेढ़ महीने पहले ही उनका एक 30 साल का बेटा लापता हो गया था. उनकी पत्नी गुमसुम देहरी पर बैठी हुई थीं. उनका एक और बेटा है जो शारीरिक रूप से अक्षम है, एक बेटा कुपोषण की बीमारी से जूझ रहा है.
राजेश पाल के पेट की बाईं तरफ एक बड़ा सा ट्यूमर है, लेकिन पैसे नहीं होने के चलते वे इसका ऑपरेशन नहीं करा पा रहे हैं. पिछले साल दंगे के दौरान उन्हें इसी जगह पर गहरी चोट लगी थी.
वे बातचीत करते-करते हांफने लगते हैं और कहते हैं, ‘ये 26 या 27 फरवरी की बात है. मेरा एक रिश्तेदार ड्यूटी से आया था, लेकिन यहां दंगे होने के चलते उसे सुरक्षाबल गलियों में जाने से रोक रहे थे. उसने फोन करके ये सब बताया तो मैंने कहा कि रुक जाओ तुम्हें लेने आ रहा हूं. मैंने वहां जाकर एक यही गलती कर दी कि मैंने उसका नाम लेकर बुलाया, तभी अगले ही पल एक बहुत बड़ा पत्थर आकर सीधे मेरे पेट की बाईं तरफ लगा. इसके बाद मैं चक्कर खाकर गिर गिया, नीचे बहुत सारे कांच पड़े थे, जिसके चलते हाथ और पैसे कई जगह पर फट गया.‘
पाल ने कहा, ‘अगले दिन सुबह में मैं जीटीबी अस्पताल गया, जहां मेरा इलाज चला. लेकिन आज तक मुझे तकलीफ है, आप देख ही रहे हैं कि मैं सही से बोल भी नहीं पाता हूं. सरकार से मुझे 20 हजार रुपये का मुआवजा मिला था, लेकिन ये पर्याप्त नहीं है. मेरी जितनी भी जमापूंजी थी वो मैं अपने बेटे को खोजने में लगा दी और वो अब भी लापता है.’
राजेश पाल अपने घर के पास में ही एक कपड़े की दुकान पर मजदूरी करते हैं. पाल आश्चर्य जताते हैं कि वे 30 साल से इस इलाके में रह रहे हैं, लेकिन कभी भी इस तरह की घटना नहीं हुई.
उन्होंने कहा, ‘राजनीति ने ही ये सब कराया है, हर मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए. हम जैसे गरीब लोग ही ऐसी घटनाओं में मारे जाते हैं.’
कबीर नगर के रहने वाले आमिर उन दिनों अपनी दसवीं की परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थे. इसी सिलसिले में वे अपने एक दोस्त से मिलने बाहर गए थे, उन्हें पता था कि इलाके में झड़पें हो रही हैं, लेकिन इस बात अंदाजा नहीं थी कि इसमें उन्हें भी गोली लग जाएगी.
आमिर ने कहा, ‘दोपहर के करीब तीन बज रहे थे. बाबरपुर की तरफ मेरा एक दोस्त है, मैं उसके वहां से लौट रहा था. एक साइबर कैफे के पास मैं पहुंचा तो देखा कुछ लोग बंदूके लहरा रहे हैं, उन्होंने लोड किया और उसे चला दिया. मैंने नहीं सोचा कि गोली यहां तक आ सकती है, लेकिन तभी मुझे पीछ पर कुछ महसूस हुआ. मुझे लगा पत्थर लगा होगा, लेकिन हाथ लगा कर देखा तो मेरी उंगलियां खून में सनी हुई थी.
उन्होंने आगे कहा, ‘डॉक्टर के यहां जाते-जाते मैं बेहोश हो गया. मुझे भयानक दर्द हो रहा था. जीटीबी अस्पताल के डॉक्टर ने गोली निकाले बिना ही मुझे घर भेज दिया, कहा सब कुछ ठीक है. बाद में जामिया के अलशिफा अस्पताल में मेरा इलाज हुआ. लगभग 25 दिनों तक ये घाव बना हुआ था.’
आमिर कहते हैं कि हर पल उन्हें डर लगा रहता है कि क्या पता कि ये दोबारा न हो जाए. उन्होंने कहा, ‘दंगे के बाद अब ऐसा तो नहीं लगता कि हिंदू-मुस्लिम में कोई दिक्कत है, लेकिन लोग सतर्कता बरतने लगे हैं. पहले हमारे हिंदू-मुस्लिम दोस्त बेफिक्र होकर एक दूसरे के यहां आया जाया करते थे, खाते-पीते थे, अब ऐसा नहीं है.’
दिल्ली सरकार आमिर के घावों को ‘हल्की चोट’ की श्रेणी में मानते हुए 20 हजार रुपये का मुआवजा दिया है.
उनकी मां शहनाज कहती हैं, ‘आप ही बताइए कि क्या गोली लगना कोई सामान्य घटना है, क्या ये नॉर्मल चोट है. हमें पता है कि हमने कैसे एक-एक दिन काटे हैं. दुनियाभर में नचाकर उन्होंने 20 हजार रुपये दिया था और बार-बार थाने बुलाते थे, डर लगता था कि कहीं हमारे बच्चे को पकड़ न लें.’
दिल्ली की केजरीवाल सरकार दावा कर रही है कि उन्होंने दंगे के पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा दिया है, लेकिन कई लोगों ने आरोप लगाया है कि प्रशासन ने उन्हें काफी कम मुआवजा दिया है.
द वायर ने अपनी पिछली रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह पीड़ित द्वारा किए गए दावे की तुलना में 10 फीसदी से कम मुआवजा दिया गया है.
दंगा प्रभावित मौजपुर, अशोक नगर जैसे इलाकों के 55 पीड़ित दुकानदारों ने क्षतिपूर्ति के लिए कुल 3.71 करोड़ रुपये का दावा किया था, लेकिन दिल्ली सरकार ने इसमें से 36.82 लाख रुपये का ही भुगतान किया है. ये दावा की गई कुल राशि का 9.91 फीसदी ही है.
राज्य सरकार ने दावा किया है कि उन्होंने दंगे के संबंध में अब तक कुल 26.10 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया है, जिसमें मृतक, घायल, प्रॉपर्टी और दुकान बर्बाद होने इत्यादि चीजें शामिल हैं. इसके लिए उन्होंने कुल 2,221 आवेदनों को मंजूरी दी थी.
राज्य सरकार के मुताबिक, अब तक 44 मृतकों, 233 घायलों, 731 घर जलाने, 1,176 दुकानें बर्बाद होने, 12 गाड़ियों को नुकसान पहुंचने, झुग्गियों को जलाने वाले 12 केस और तीन स्कूलों को क्षतिग्रस्त करने को लेकर मुआवजा दिया जा चुका है.
वहीं दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर 13 अप्रैल 2020 को ‘उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगा दावा आयोग’ बनाया गया था, जिसके यहां मुआवजे के लिए 2,600 आवेदन दायर किए गए हैं.
लेकिन आलम ये है कि इस आयोग ने अभी तक एक भी केस में फैसला नहीं किया है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली दंगे में 53 लोगों की मौत हुई, 581 लोग घायल हुए और कई करोड़ रुपये की संपत्ति बर्बाद हुई थी.