फ़ैज़ाबाद का नाम मिटने से क्या शहर की तक़दीर भी बदल जाएगी…

 

खुद को फन्ने खां समझने वाले एक सज्जन को एक दिन जाने क्या सूझा कि सुबह सोकर उठे तो अपने आस-पास के लोगों को सुनाकर कहने लगे, ‘मैंने एक ऐसा उपाय ढूंढ़ लिया है, जिससे न सिर्फ उन लोगों को भी मालपुए नसीब होने लगेंगे, जो अभी छछिया भर छाछ पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं, बल्कि जो अभी मालपुआ उड़ा रहे हैं, वे छाछ पीने लग जाएंगे.’

पहले तो लोगों ने यह समझकर कि वे किसी सुरूर में बेपर की उड़ा रहे हैं, तवज्जो नहीं दी, लेकिन वे अपने कहे को बार-बार दोहराने लगे, तो उनमें से एक ने पूछ लिया कि भाई, कौन-सा उपाय है वह? सज्जन ने छूटते ही कहा, ‘यही कि छाछ का नाम मालपुआ और मालपुए का नाम छाछ रख दिया जाए!’

यूं, अंग्रेजी के प्रतिष्ठित कवि व नाटककार विलियम शेक्सपीयर ने भी लिखा है कि नाम में क्या रखा है और हमारे देश में भी ‘नाम बड़े और दर्शन थोड़े’ व ‘अंधे का नाम नैनसुख’ जैसी कहावतें हैं, लेकिन नाम बदलने की कवायदों की व्यर्थता पर उक्त सज्जन के प्रकरण से सामने आया तंज न सिर्फ अद्भुत बल्कि लाजवाब कर देने वाला भी है.

लेकिन अफसोस कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को नाम बदलने के एजेंडा पर लंबी यात्रा के बावजूद उसकी व्यर्थता का एहसास नहीं हो पा रहा और वह उसे अपने धार्मिक-सांप्रदायिक एजेंडा का ‘सबसे जरूरी उपकरण’ बनाए हुए है.

बहरहाल, पूरे उत्तर प्रदेश के बजाय उस अयोध्या की ही बात करें, जिसको इस सरकार और उसकी समर्थक जमातों ने अपने उक्त एजेंडा के उद्भव और विकास का केंद्र बना रखा है, तो फैजाबाद जिले व नगर को अयोध्या का नाम दे चुकने के बाद भी यह सरकार चैन व करार से महरूम ही है. इसीलिए अब उसने केंद्र सरकार को सिफारिश भेज दी है कि फैजाबाद रेलवे स्टेशन का नाम भी अयोध्या कैंट कर दिया जाए.


कहने की जरूरत नहीं कि हमेशा की तरह इस बार भी उसके निशाने पर अवध की बेमिसाल गंगा-जमुनी संस्कृति ही है, जिसे अब उसके विचारक ‘अप्रासंगिक व खोखली’ परिकल्पना बताने पर भी उतर आए हैं. लेकिन शायद ही किसी को उम्मीद हो कि केंद्र सरकार इस बात को समझकर उसकी सिफारिश को मानने से मना कर देगी.

ज्यादा संभावना इसी की है कि प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव से पहले इस सिफारिश को मान लिया जाएगा, जिसके बाद भाजपा इस उपलब्धि की वाहवाही लूटना शुरू कर देगी कि अंततः उसने ‘फैजाबाद’ को इतिहास में दफन कर दिया है.

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2018 में अयोध्या में सरकारी खर्चे पर मनाए गए ‘भव्य’ दीपोत्सव में इस परिणति का आगाज कर फैजाबाद जिले व मंडल का नाम अयोध्या करने का ऐलान किया तो उनके समर्थकों ने बक्सर की 22 अक्टूबर, 1764 की ऐतिहासिक लड़ाई में अंग्रेजों को हासिल उस विजय जैसा सुख अनुभव किया था, जिसके बाद अंग्रेजों ने अयोध्या के समीपवर्ती फैजाबाद को राजधानी बनने का गौरव प्रदान करने वाले अवध के नवाब शुजाउद्दौला को युद्ध अपराधी करार दिया था. साथ ही उनसे इलाहाबाद समेत अवध एक बड़ा क्षेत्र छीन लिया और उन पर पचास लाख रुपयों का हर्जाना लगा दिया था.

बल्लियों उछलते इन समर्थकों में से कई का दावा था कि पहले इलाहाबाद, फिर फैजाबाद का नामोनिशान मिटाकर योगी ने अंग्रेजों के बक्सर के पराक्रम से कहीं बड़ा पराक्रम प्रदर्शित किया है, जिसे वे शिकोहाबाद, फिरोजाबाद, मुरादाबाद व गाजियाबाद और अलीगढ़ वगैरह के रास्ते और आगे बढ़ाएंगे.

फिलहाल, योगी ने उसे फैजाबाद जंक्शन के रास्ते आगे बढ़ाने का फैसला किया है, लेकिन कौन कह सकता है कि इसके पीछे सामाजिक आर्थिक मुद्दों को दरकिनार कर हिंदू अस्मिता की राजनीति को आगे करने और उससे जुड़े भावनात्मक मुद्दों व ग्रंथियों को भुनाने की उनकी पार्टी की पुरानी नीयत ही नहीं है?

इस सिलसिले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह कि भले ही अपनी हिंदू मुस्लिम ग्रंथि को तुष्ट करने के लिए उन्हें फैजाबाद की बलि आवश्यक लगी और अब उसकी बिना पर वे अयोध्या को ‘प्रतिष्ठित’ करने का श्रेय अपने नाम करना चाहते हैं, फैजाबाद ने अपने छोटे-से इतिहास में कभी उस ग्रंथि से खुद को जोड़ा ही नहीं.

जब वह अवध की राजधानी हुआ करता था और उसके वैभव के आगे दिल्ली भी पानी भरती थी, वह अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति का निर्दम्भ वारिस बना ही रहा था. बाद के उजाड़ के दिनों में भी उसने अपनी इस विरासत पर कोई आंच नहीं आने दी थी. तभी तो अयोध्या के और उसके जन्मकाल में बड़ा फासला होने के बावजूद उसे अयोध्या का जुड़वां शहर कहा जाता था और किसी को भी उसमें कुछ गलत नहीं लगता था.

दोनों शहरों की सीमाएं भी इतनी मिली हुई थीं कि आगंतुकों को पता ही नहीं चलता था कि कब वे अयोध्या से फैजाबाद या फैजाबाद से अयोध्या में प्रविष्ट हो गए.

स्वाभाविक ही यह सवाल अभी भी अपनी जगह है कि क्या उसकी बलि से उस अयोध्या को वाकई कुछ ज्यादा प्रतिष्ठा मिलने वाली है, जो पहले ही सप्तपुरियों- अयोध्या, मथुरा, द्वारका, काशी, हरिद्वार, उज्जैन और कांचीपुरम- में अग्रगण्य है? अनेक श्रद्धालुओं की निगाह में तो वह पहले से न सिर्फ देश बल्कि दुनिया की ‘सबसे निराली’ नगरी है, इसलिए कि वहां ‘राम लीन्ह अवतार.’

प्रसंगवश, फैजाबाद ने कभी अयोध्या जैसे महात्म्य की दावेदारी नहीं की, न ही उसके गौरव में कोई छोटा-सा भी हिस्सा चाहा. एक प्रसिद्ध शायर ने अपनी मसनवी में उसे ‘बाग-ए- इरम’ (जन्नत का एक बाग) कहा तो भी फुलकर कुप्पा नहीं ही हुआ.

दरअसल, अयोध्या से उसकी कोई लाग-डांट कभी रही ही नहीं. अलबत्ता, दिल्ली और लखनऊ से उसने भरपूर मुकाबले किए. तिस पर वह ‘गुलामी की निशानी’ भी नहीं था. न ही उसके नाम से किसी धर्म या संप्रदाय की बू आती थी. उसकी गंगा-जमुनी संस्कृति में आकर तो मोहनभोग और हलवा दोनों एक हो गए थे.

जहां तक अयोध्या की बात है, वह अतीत में हमेशा नगरी या पुरी ही रही है. तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में भी भगवान राम के मुंह से उसे ‘जन्मभूमि ममपुरी सुहावनि’ ही कहलवाया है. इस पुरी का जनपद था कोशल और कई लोगों को उम्मीद थी कि इसके लिए फैजाबाद की बलि लेने वालों में कम से कम इतना विवेक तो होगा ही कि वे अयोध्या और कोशल के बीच का फर्क समझ सकें.

लेकिन अब वे नाउम्मीद होकर रह गए हैं, तो एक ओर उनकी नाउम्मीदी है और दूसरी ओर उन्हें नाउम्मीद करने वालों को संबोधित जनकवि अदम गोंडवी के सवाल: गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे, क्या उनसे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे? जायस से वो हिन्दी का दरिया जो बहके आया, मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे? जो अक्स उभरता है रसखान की नज्मों में, क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे? तारीख बताती है, तुम भी तो लुटेरे हो, क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे?

क्या पता, नाउम्मीद करने वाले इन्हें सुन भी पा रहे हैं या नहीं? सुन रहे हों तो उन्हें कुछ और जरूरी सवालों के जवाब भी देने चाहिए: अयोध्या जिले की प्रति व्यक्ति आय क्या है और क्या उसके नाम से फैजाबाद हटाए जाने के बाद इस आय में कोई गर्व करने लायक वृद्धि हुई है?

प्रति व्यक्ति आय के मामले में प्रदेश के सबसे फिसड्डी पांच जिले-बलरामपुर, बहराइच, जौनपुर प्रतापगढ़ और बलिया-पूर्वांचल के ही क्यों हैं, जिसमें अयोध्या भी अवस्थित है? क्या अयोध्या की सरकार प्रायोजित जगर-मगर उसकी गरीबी का विकल्प हो सकती है? और विकास के नाम पर लोगों को दरबदर करने वाली सरकारी योजनाएं इस गरीबी को घटाएंगी या बढ़ाएंगी?

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