प्रेस आज़ादी: 180 देश में भारत 142वें नंबर पर चला गया है, फिर भी देश का मीडिया PR बना हुआ है

 


“पत्रकारिता का काम वो सब छापना है जो कोई और नहीं छापना चाहता,

बाकी सब पब्लिक रिलेशन्स है।”
– जॉर्ज ऑरवेल

पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशन्स (पीआर) के बीच एक महीन सी रेखा है जो इन दोनों को एक दूसरे से अलग बनाती है। पत्रकार का काम होता है सच दिखाना और पीआर वालों का काम होता है कि चाहे झूठ हो या सच, उसे बेच डालना।

भारत में टीवी मीडिया के ऐसे बहुत से कथित पत्रकार हैं जो सच और झूठ दोनों को बेच रहे हैं। सच में मिर्च मसाला लगाकर उसे एक अलग ही रंग दे रहे हैं, और झूठ बेचना तो उनके लिए अब खेल बन चुका है। आए दिन झूठी खबरों से TRP कमाने वाला ये गोदी मीडिया अब दंगाई मीडिया बन चुका है। एक ऐसा मीडिया जो लोगों के दिलों में एक दूसरे के लिए नफ़रत घोलता जा रहा है।

न्यूज़ 18 का एंकर अमीश देवगन मुंबई के कुर्ला में लोकल्स और पुलिस के बीच हुई झड़प को सांप्रदायिक रंग देकर बेचता है। वो कहता है कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के बाद मुस्लिम बाहर आए और पुलिसकर्मियों की पिटाई की। सच तो ये है कि “पीआर एजेंट” अमिश देवगन ने जिस घटना का ज़िक्र किया वहां आस पास कोई मस्जिद ही नहीं थी। इसी तरह दंगाई मीडिया के दूसरे पत्रकार भी फ़र्ज़ी खबरें फैलाते रहते हैं, नोटों से चिप निकालते रहते हैं। लेकिन उनके ऊपर कोई कार्यवाही नहीं होती।

स्वतंत्रता तो उन पत्रकारों की छीनी जाती है जो उन मुद्दों को उठाते हैं जिन्हें ऐसे “पी.आर. एजेंट” छापना नहीं चाहते। जो पत्रकार सरकार से सवाल करते हैं उन्हें जेल में डाला जाता है और जो सरकार का पीआर करते हैं उनकी जेबों को रुपए से भरा जाता है।

कोरोना जैसी महामारी के समय रिपोर्ट करने पर भी कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक पत्रकारों को गिरफ़्तार किया जा रहा है। यहां तक कि अंडमान के फ्रीलांस पत्रकार ज़ुबैर अहमद को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने ट्वीट कर एक सवाल पूछ लिया। ज़ुबैर ने पूछा कि कोरोना संक्रमित मरीजों से महज बात करने पर उसके परिवार वालों को क्वारंटाइन क्यों किया जा रहा है? बस इसी बात पर उन्हें जेल में डाल दिया गया। फिलहाल उन्हें अंतरिम जमान दे दी गई है।

मोदी सरकार UAPA कानून ले आई ताकि एक व्यक्ति को भी “आतंकी” घोषित किया जा सके। अब इसका इस्तेमाल पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की ज़ुबान बंद करवाने के लिए हो रहा है। कश्मीर की पात्रकार Masrat Zahra को UAPA के तहत बुक किया गया है। कश्मीर के दो और पत्रकार, पीरज़ादा आशिक और गौहर जिलानी, पर भी कई तरह के आरोप लगाकर उनकी स्वतंत्रता पर सवालिया निशान लगा दिए।

भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार से पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स इसलिए पूछताछ करती है क्योंकि उन्होंने बेकार क्वालिटी के PPE किट पर स्टोरी कर दी थी।

कुछ समय और पीछे चले जाएं, मार्च महीने में ड्यूटी पर जा रहे आजतक के पत्रकार नवीन कुमार को पुलिसकर्मियों ने बेरहमी से पीटा था।

शायद इसलिए हमारे देश में मेहनत से काम करने वाले पत्रकारों पर अत्याचार हो रहा है। इसलिए भारत “वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स” में 180 देशों में से 142वां स्थान पाता है।

उदाहरण बहुत सारे हैं, लेकिन सरकार और अधिकारियों के पास जवाब नहीं है। सवाल ये है कि पत्रकारों को दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र में सवाल करने पर जेल क्यों भेजा जाता है? सवाल ये है कि अगर जनता के मत से चुनकर आई सरकार को सवाल पसंद नहीं, तो क्या उन्हें लोकतंत्र भी पसंद नहीं? सवाल है कि क्या संविधान में मिले अधिकार के ज़रिए पत्रकार अगर ख़बर खोजते हैं तो उनपर अत्याचार क्यों?

सच तो ये है कि प्रेस फ्रीडम ही एक सवाल बन गया है, क्योंकि सवाल करने वाले पत्रकारों को तो जेल में डाला जा रहा है और “पीआर एजेंटों” का सम्मान किया जा रहा है।

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